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क्षेत्रलोक
293 चुम्बकीय सूई (Magnatic Campas) आदि। क्षेत्र दिशा- आठ प्रदेश वाले रुचकप्रदेश से निकलने वाली प्रत्येक दिशाएँ दो-दो प्रदेश विस्तार से बढ़ती हैं तथा विदिशाएँ एक-एक प्रदेश के विस्तार से बढती हैं। लोकान्त तक दस दिशाएँ असंख्यात प्रदेश विस्तार में होती हैं। अलोक की अपेक्षा से दिशाएँ अनन्त प्रदेश के विस्तार में होती हैं। लोक के वर्तुलाकार होने से लोकान्त में दिशा चार प्रदेशी हो जाती है। इस तरह दिशा का एक
ओर द्विप्रदेशी होना एवं दूसरी ओर चतुःप्रदेशी होना उसका मृदंगाकार रूप द्योतित करता है। अर्थात् दिशा का मुख एक ओर संकुचित होता है और दूसरी ओर से चौड़ा होता है।" ये दिशाएँ लोक की अपेक्षा साधन्त हैं और अलोक की अपेक्षा सादि अनन्त है।" ताप दिशा- सूर्य की अपेक्षा से पाँचवीं दिशा ताप दिशा कही जाती है। ताप दिशा में सूर्य जहाँ से उदित होता है वह पूर्व दिशा कहलाती है और इसी अनुक्रम से दूसरी दिशाएँ पश्चिम आदि कही जाती है। भाव दिशा- गुणों के आधार पर दिशाओं का नामकरण करना 'भावदिशा' है। मनुष्य आदि के भेद से भाव दिशा के अठारह प्रकार कहे गए हैं। अठारह प्रकार इस तरह हैं- १. कर्मभूमि मनुष्य के गुणों के आधार पर २. अकर्मभूमि मनुष्य के गुणों के आधार पर ३. अन्तर्वीप मनुष्य के गुणों के आधार पर ४. सम्मूर्छिम मनुष्य के गुणों के आधार पर ५. द्वीन्द्रिय तिर्यंच के गुणों के आधार पर ६.त्रीन्द्रिय तिर्यच के गुणों के आधार पर ७. चतुरिन्द्रिय तिर्यंच के गुणों के आधार पर ८. पंचेन्द्रिय तिर्यच के गुणों के आधार पर ६. पृथ्वीकाय के गुणों के आधार पर १०. अप्काय के गुणों के आधार पर ११. तेजस्काय के गुणों के आधार पर १२. वायुकाय के गुणों के आधार पर १३. वनस्पतिमूल के गुणों के आधार पर १४. वनस्पतिस्कन्ध के गुणों के आधार पर १५. वनस्पति के शिखर के गुणों के आधार पर १६. वनस्पति के पर्व के गुणों के आधार पर १७. देव के गुणों के आधार पर १८. नारकी के गुणों के आधार पर। प्रज्ञापक दिशा- जिस दिशा के सन्मुख रहकर उपदेशक अथवा गुरु धर्म का उपदेश या ज्ञान देते हैं वह 'प्रज्ञापक दिशा' कहलाती है।" अधोलोककास्वरूप
वेत्रासन आकार वाले अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमः प्रभा ये सात पृथ्वियाँ एक-एक रज्जू के अन्तराल से स्थित हैं। सातों पृथ्वियों के ये गुणनाम और सार्थकनाम हैं। धर्मा, वंशा, शैला, अंजना, रिष्टा, मघा और माघवती ये इन