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क्षेत्रलोक
291 लोक के मध्यभाग में स्थित सम भूतल का ज्ञापक जो रुचक प्रदेश है, वह मध्यलोक के मध्यभाग में स्थित है। यह एक प्रकार का केन्द्र है जिससे दिशा और विदिशा का निर्धारण होता है। अर्थात् दिशा-विदिशा का उत्पत्ति स्थान रुचक प्रदेश है। यह रुचक आठ प्रदेश परिमाण स्वीकार किया गया है।
पूर्व, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय), दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), पश्चिम, उत्तर-पश्चिम (वायव्य), उत्तर, उत्तर-पूर्व (ईशान), ऊर्ध्व और अधः इस तरह ये दस दिशाएँ हैं। इनमें छह- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः शुद्ध दिशाएँ हैं एवं शेष चार आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य और ईशान विदिशाएँ हैं।"
ऐन्द्रयाग्नेयी तथा याम्यानैर्ऋती किं च वारुणी।
वायव्येतः परा सौम्येशानी च विमला तमा।।" उपाध्याय विनयविजय कहते हैं कि जब ये दश दिशाएँ देव से सम्बद्ध कही जाती हैं तब इनकी अन्य संज्ञा हो जाती है, क्रमशः यथा- ऐन्द्री, आग्नेयी, यामी (याम्या), नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, सौम्या, ईशानी, विमला और तमा। जिस स्थान या क्षेत्र में इन्द्र का वास है वह दिशा ऐन्द्री कहलाती है। इसी प्रकार आग्नेयी आदि दिशाओं का नामकरण देवों के स्थान के आधार पर भी किया गया है।
लोकप्रकाशकार ने दिशाओं के अन्य सात भेदों का भी निरूपण किया है :- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, भाव और प्रज्ञापका नाम दिशा- किसी भी सचित्त द्रव्य का दिशा, पूर्वी, पूर्वा, उत्तरा आदि नाम रखना नामदिशा है।" स्थापना दिशा- पट्ट आदि में जम्बूद्वीप आदि दिशा-विदिशाओं को चित्रित कर स्थापित करना स्थापना दिशा है। द्रव्य दिशा- किसी भी द्रव्य दिशा का निक्षेप कर उसका दिशा सम्बन्धी बोध करना द्रव्य दिशा है। कम से कम तेरह परमाणु वाले आकाश प्रदेश का अवगाहन करने वाले द्रव्य में ही दिशाओं का बोध होता है।