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जीव-विवेचन (4)
आगमों के आधार पर किया है। ५. एक जीव मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः उसी गति में कितने काल के पश्चात् जन्म ग्रहण करता
है इस काल व्यवधान को जैन पारिभाषिक शब्दावली में अन्तर कहा गया है। उपाध्याय विनयविजय ने अन्तर द्वार के अन्तर्गत गति, जाति, काय ओर पर्याय के आधार पर इस काल व्यवधान का विचार किया है। एक जीव का पुनः उसी शरीर को ग्रहण करने में
अन्तर्मुहूर्त से लेकर अनन्तकाल तक अन्तर हो सकता है। ६. किसी जीव के वर्तमान जन्म और परवर्ती जन्म अथवा पूर्ववर्ती जन्म के आधार पर उनके
जघन्य एवं उत्कृष्ट जन्मों की गणना करना भवसंवेध कहलाता है। जैन आगम व्याख्याप्रज्ञप्ति के २४वें शतक के उद्देशक १-२४ में जीवों के भवसंवेध का उल्लेख प्राप्त होता है। जैन विद्वानों ने लघुदण्डक, गति-आगति और गम्मा के थोकड़े के माध्यम से भी भवसंवेध को प्रस्तुत किया है। लोकप्रकाशकार ने भवसंवेध का १०वें सर्ग में विस्तृत विवेचन किया है। यह भवसंवेध तीन आधारों पर निरूपित किया गया है- १. औदारिक शरीरी जीवों द्वारा वैक्रिय शरीर प्राप्त करने पर २. वैक्रिय शरीरी जीवों द्वारा औदारिक शरीर प्राप्त करने पर ३. औदारिक शरीरी जीवों द्वारा औदारिक शरीर प्राप्त करने पर। इस
प्रकार का यह वर्णन जीवों के परिणमन का एक स्वरूप निर्धारित करता है। संदर्भ १. पातञ्जल सूत्र, पाद 1, सूत्र 2
(क) पंचसंग्रह 1.88 के आसपास (ख) सर्वार्थसिद्धि 6.12 द्रष्टव्य (क) तत्त्वार्थसूत्र, 6.1 (ख) सर्वार्थसिद्धि 2.26 (ग) तत्त्वार्थराजवार्तिक 9/7/11 (घ) पंचसंग्रह प्राकृत अधिकार, 1.88 (ड) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 216 (क) लोकप्रकाश, 3.1304 (ख) सर्वार्थसिद्धि 6.1 और 10 (ग) गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 216 (ड) षट्खण्डागम, धवला टीका 1/1.1.47 और 48 "वीर्यान्तरायक्षयोपशमसदभावे सति औदारिकादिसप्तविधकायवर्गणान्यतमालम्बनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः काययोगः।-सर्वार्थसिद्धि, 6.1, पृष्ठ 244 'शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्वर्गणालम्बने सति वीर्यान्तरायमत्यक्षराद्यावरणक्षयोपशमापादिताभ्यन्तरवाग्लब्धिसांनिध्ये वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः। -सर्वार्थसिद्धि. 6.1, पृष्ठ 244 ..... . 'अभ्यन्तरवीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमात्मकमनोलब्धिसंनिधाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने
च सति मनःपरिणामाभिमुखस्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोगः। -सर्वार्थसिद्धि, 6.1, पृष्ठ 244 ६. (क) लोकप्रकाश, 3.1304 (ख) सर्वार्थसिद्धि, 8.1 (ग) गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 217 ६. लोकप्रकाश, 3.1305 १०. लोकप्रकाश ३.1336
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