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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन सर्वजीवाल्पबहुत्वम्, पृष्ठ 415 १०४. सातवीं तमस्तमप्रभा पृथ्वी से लेकर दूसरी पृथ्वी तक के नारक सभी घनीकृत लोकश्रेणी के
असंख्यातवें भाग में स्थित आकाश के प्रदेशों की राशि के बराबर हैं, किन्तु श्रेणी के असंख्यातवें भाग के भी असंख्यात भेद होते हैं, अतएव दोनों स्थानों पर असंख्यातगुणा अल्पबहुत्व कहने में भी कोई विरोध नहीं आता। -प्रज्ञापना सूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 2, पद 3, महादण्डकानुसारेण
जीवाल्पबहुत्वम्, पृष्ठ सं. 419–4201 .. १०५. प्रज्ञापना सूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 2, पद 3, पृष्ठ 424 १०६. असंख्यात काल- असंख्येय काल उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल रूप है तथा क्षेत्र से एक अंगुल
असंख्येय भाग क्षेत्र में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनका प्रति क्षण एक-एक का आहार करने पर जितने काल में वे निर्लेप होते हैं, वह काल असंख्यात काल होता है।
-लोकप्रकाश, 4.153-154 १०७. लोकप्रकाश, 4.152 १०८. लोकप्रकाश, 4.155 १०६. लोकप्रकाश, 5.356 से 360 ११०. लोकप्रकाश, 6.61 और 6.195 एवं 196 १११. जीवाजीवाभिगम सूत्र, प्रथम खण्ड, पृष्ठ 150-151 पर ११२. लोकप्रकाश, 7.122 ११३. लोकप्रकाश, 8.153 ११४. लोकप्रकाश, 9.37 ११५. लोकप्रकाश, 7.123 ११६. लोकप्रकाश, 10.2-3 ११७. सात नरकभूमियां- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और
तमस्तमप्रभा। सातों के अलग-अलग सात निज क्षेत्र है।-लोकप्रकाश, 9.1 ११८. दस भवनपति- असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युतकुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार,
समुद्रकुमार, दिग्कुमार, वायुकुमार और मेघकुमार।-लोकप्रकाश, भाग 1, 8.2 ११६. पांच प्रकार के ज्योतिषी देव-सूर्य,चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा।-लोकप्रकाश, 8.58 १२०. सोलह व्यन्तर देव- पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व तथा
अणपन्नी, पणपन्नी, ऋषिवादी, भूतवादी, कंदी, महाकंदी, कुष्मांड और पतंग। -लोकप्रकाश, 8.
29-50 १२१. वैमानिक देवों के बारह देवलोक हैं- सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लांतक, शुक्र,
सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत। १२२. लोकप्रकाश, 10.11-13 १२३. लोकप्रकाश, 10.13 १२४. लोकप्रकाश, 10.14-15 १२५. लोकप्रकाश, 10.16-17 १२६. लोकप्रकाश, 10.18 १२७. नौ ग्रैवेयक देव- अधस्तनाधस्तन, अधस्तनमध्यम, अधस्तनोपरितन, मध्यामाधस्तन, मध्यममध्यम,