________________
जीव-विवेचन (4)
251 तिर्यच पंचेन्द्रिय-तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में सजातीय अपेक्षा से सबसे अल्प खेचर पुल्लिंग जीव होते हैं एवं इससे क्रमशः खेचर स्त्रीलिंग, स्थलचर पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग, जलचर पुल्लिंग व स्त्रीलिंग जीव संख्य-संख्य गुणा अधिक होते हैं। सम्मूर्छिम नपुंसक खेचर, स्थलचर और जलचर जीव जलचर-स्त्रीलिंग से अनुक्रम से संख्यात गुणा अधिक हैं।
दिशा की अपेक्षा से पश्चिम दिशा में तिथंच पंचेन्द्रिय जीव सबसे अल्प हैं और अधिक से अधिक क्रमशः पूर्व, दक्षिण और उत्तर दिशाओं में होते हैं। पश्चिम दिशा में गौतम द्वीप की स्थिति होने से यहां तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव भी अल्प हैं। मनुष्य- स्व जाति की अपेक्षा से गर्भज पुरुष सबसे कम तथा इससे संख्यात गुणा अधिक गर्भज स्त्रियाँ हैं। सम्मूर्छिम मनुष्य की संख्या दोनों से असंख्यात गुणा अधिक हैं।" मनुष्य दिशा की अपेक्षा सबसे कम दक्षिण और उत्तर दिशा में होते हैं, क्योंकि इन दोनों दिशाओं में भरत और ऐरवत क्षेत्र का विस्तार कम है फलतः मनुष्य की संख्या कम होती है। जबकि पूर्व और पश्चिम में भरत एवं ऐरवत क्षेत्र का विस्तार संख्यात गुणा अधिक होने से मनुष्य की संख्या स्वतः अधिक हो जाती है।६२ देव- सजातीय अपेक्षा से देवों में सबसे अल्प सर्वार्थसिद्धस्थ देव होते हैं। इनसे शेष रहे अनुत्तरविमान के देव असंख्य गुणा अधिक होते हैं। ग्रैवेयक के ऊर्ध्वत्रिक, मध्यत्रिक और अथोत्रिक के देव अनुक्रम से अनुत्तर वैमानिक देव से संख्यात-संख्यात गुणा अधिक होते हैं। इनसे अच्युत, आरण, प्राणत और आनत देवलोक के देव अनुक्रम से संख्यात-संख्यात गुणा अधिक होते हैं। अच्युत देवलोक की अपेक्षा आरण देवलोक में कृष्ण पाक्षिक जीव की बहुलता होने से विमान संख्या के समान होने पर भी देवों की संख्या अधिक होती हैं। आनत देवलोक के देवों से सहस्रार देवलोक के देव असंख्यात गुणा होते हैं। महाशुक्र, लांतक, ब्रह्म, माहेन्द्र, सनत्कुमार और ईशान देवलोक के देव अनुक्रम से आनत देवलोक के देवों से असंख्यात गुणा अधिक होते हैं। सौधर्म देवलोक के देव ईशान देवलोक के देवों से संख्यात गुणा अधिक होते हैं, इनसे भवनपति देव असंख्य गुणा, भवनपति से व्यन्तर देव असंख्यात गुणा और ज्योतिष्क देव व्यन्तरों से संख्यात गुणा अधिक होते हैं। सभी देवलोकों की देवियाँ अपने देवों से संख्यात गुणा अधिक होती हैं।
दिशाओं की अपेक्षा सबसे कम भवनवासी देव पूर्व और पश्चिम दिशा में होते हैं, क्योंकि इन दोनों दिशाओं में इनके भवन थोड़े हैं। इनकी अपेक्षा उत्तर एवं दक्षिण दिशा में स्वस्थान होने से वहां उनके भवन अधिक हैं अतः इन दोनों दिशाओं में भवनवासी देव अधिक होते हैं। वाणव्यन्तर देव खाली स्थान में अधिक विचरण करते हैं अतः पूर्व दिशा में सघन स्थान की अधिकता से इस दिशा में ये देव सबसे अल्प होते हैं। पश्चिम दिशा में अधोलौकिक ग्रामों में रन्ध्र होने से तथा उत्तर