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जीव-विवेचन (4) ८. एक प्रतर के अन्दर २५६ अंगुल लम्बाई वाले जितने सूचिखण्ड होते हैं उतनी संख्या में
ज्योतिष्क देव-देवियाँ होती हैं।७२ नारक
अंगुल प्रमाण क्षेत्र प्रदेश की राशि को तीसरे वर्गमूल से गुणा करने पर प्रथम वर्गमूल में जितनी प्रदेश राशि होती है उतने प्रमाण वाले एक प्रदेशी की श्रेणि में होने वाले आकाश प्रदेश की संख्या के समान प्रथम नरक में नारकी जीव होते हैं। शेष छह नरक में घनकृत लोक की श्रेणि के असंख्यातवें भाग समान आकाश प्रदेशों के बराबर जीव होते हैं और सातवें नरक से लेकर दूसरे नरक तक उत्तरोत्तर असंख्य गुणा नारकी जीव बढ़ते रहते हैं।
जीवों की संख्या एवं उनके द्वारा गृहीत आकाश प्रदेश आदि के आधार पर कृत यह निरूपण जैन-चिन्तन की सूक्ष्मेक्षिका को प्रकाशित करता है।
चौतीसवां द्वार : जीवों में परस्पर एवं दिशा की अपेक्षा अल्पबहुत्व विधान
अल्प-बहुत्व शब्द से तात्पर्य है एक ही जीव का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से दूसरे जीव से अल्प (कम) और बहु (अधिक) होना। दिशा का अनुपात, गतिद्वार, इन्द्रिय, काय, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, उपयोग, आहार, संयम, भाषा, भव्य-अभव्य, क्षेत्र आदि कई ऐसी दृष्टियाँ हैं जिनके आधार पर जीवों का अल्प-बहुत्व स्पष्ट किया जा सकता है। प्रज्ञापना सूत्र के तृतीय पद में जीवों के अल्प-बहुत्व की विस्तृत चर्चा लगभग इन सभी दृष्टियों से की गई है। उपाध्याय विनयविजय ने सजातियों की अपेक्षा से लघु, समस्त जीवों की अपेक्षा से महा और दिशा इन तीन द्वारों से जीवों के अल्प-बहुत्व का वर्णन किया है।" लघुता और क्षेत्र की अपेक्षा से जीवों का यह वर्णन क्रमशः इस प्रकार हैसजातीय एवं दिशा की अपेक्षा अल्पबहुत्व सूक्ष्म एकेन्द्रिय- सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में सजातीय एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से सबसे अल्प सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव हैं और उससे विशेष अधिक अनुक्रम से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वायुकायिक जीव हैं। सूक्ष्म वायुकायिक जीव से निगोद के जीव असंख्य गुणा अधिक हैं और इससे अनन्त गुणा अधिक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव हैं। एकेन्द्रिय जाति के पर्याप्त जीव अपर्याप्तों से असंख्य गुणा अधिक होते हैं। ..दिशा की अपेक्षा से सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों के अल्प-बहुत्व का निर्धारण नहीं हो सकता, क्योंकि ये जीव प्रायः सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं एवं सर्वत्र समान हैं।