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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन
एवं दक्षिण दिशा में नगरावासों की बहुलता से वाणव्यन्तर देव इन तीन दिशाओं में अपेक्षाकृत अत्यधिक है। ज्योतिष्क देव" पूर्व और पश्चिम दिशा में सबसे कम होते हैं क्योंकि इन दिशाओं में चन्द्र-सूर्य द्वीप हैं जो कि उद्यानप्रधान हैं अतः वहां ये देव कम होते हैं। दक्षिण एवं उत्तर दिशा में अनुक्रम से ये देव अधिकाधिक होते हैं। दक्षिण दिशा में विमान एवं कृष्ण पाक्षिक देवों की उत्पत्ति अधिक होने से इनकी संख्या अधिक है और उत्तर दिशा में मानस सरोवर की स्थिति होने से ये अधिक होते हैं। दिशा के आश्रित सौधर्म देवलोक के देव पूर्व और पश्चिम में कम होते हैं। दक्षिण एवं उत्तर में ही पुष्पावकीर्ण विमानों की सत्ता होने से ये देव इन दो दिशाओं में अधिक होते हैं। ब्रह्म देवलोक " के देव पूर्व, उत्तर और पश्चिम दिशाओं में सबसे कम होते हैं, क्योंकि इन दिशाओं में शुक्ल पाक्षिकों की उत्पत्ति होती है और ये स्वभावतः अल्प होते हैं। दक्षिण दिशा में प्रायः कृष्णपाक्षिकों की उत्पत्ति होती है। वे भी स्वभावतः अधिक होते हैं। अतः ब्रह्मदेवलोक के देव दक्षिण में अधिक होते हैं।
लांतक, शुक्र और सहस्रार देवलोक के देवों का दिशा की अपेक्षा अल्पबहुत्व ब्रह्म देवलोक के देवों के समान है। आनत देवलोक से लेकर अन्तिम अनुत्तर विमान तक के देवलोक के देवों का अल्पबहुत्व चारों दिशाओं में समान है। दक्षिण दिशा में पांच भरतक्षेत्रों में एवं उत्तर दिशा में पांच ऐरावत क्षेत्रों में कुछ मनुष्य ही सिद्धि प्राप्त करते हैं। अतः सिद्ध जीव दक्षिण और उत्तर में कम होते हैं। जबकि पूर्व और पश्चिम दिशा में असंख्यात गुणा अधिक होते हैं। नारकी - नारकीय जीवों में सजातीय की अपेक्षा से सबसे कम नारकी जीव सातवें नरक में होते हैं। छठी नरक से लेकर पहले नरक तक में नारकी जीवों की संख्या उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा अधिक होती जाती हैं। उत्कृष्ट पाप करने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य सातवें नरक में जाते हैं।
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दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम नारक जीव पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में होते हैं। इन दिशाओं में पुष्पावकीर्ण नारकावास थोड़े हैं और वे प्रायः संख्यात योजन विस्तार वाले ही हैं। अतः नारक जीव इन दिशाओं में कम होते हैं। दक्षिण दिशा में असंख्यात योजन विस्तार वाले पुष्पावकीर्ण नारकावासों की बहुलता होने से नारक जीव इस दिशा में असंख्यातगुणा अधिक होते हैं।'
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तीसवां एवं सैतीसवां द्वार : महाअल्पबहुत्व
समस्त जीवों का जो अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया जाता है वह महा - अल्पबहुत्व कहलाता है। इस महाअल्पबहुत्व को ६८ बोलों के माध्यम से समझाया गया है। इस अल्पबहुत्व की दृष्टि से सम्पूर्ण लोक में गर्भ से उत्पन्न होने वाले गर्भज मनुष्य सबसे कम होते हैं, क्योंकि इनकी संख्या