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जीव-विवेचन (3)
१४७. लोकप्रकाश, 3.889 से 905 १४८. लोकप्रकाश, 3.924 से 933 १४६. लोकप्रकाश, 3.934 से 936 १५०. लोकप्रकाश, 3.964-965 १५१. लोकप्रकाश, 870 से 873 १५२. लोकप्रकाश, 4.128 और 5.314 १५३. लोकप्रकाश,6.44 १५४. लोकप्रकाश,6.177 १५५. लोकप्रकाश, 7.15 १५६. लोकप्रकाश, 7.111 १५७. लोकप्रकाश, 8.89 १५८. लोकप्रकाश, 9.19 १५६. लोकप्रकाश, 3.1009-1010 १६०. लोकप्रकाश, 3.983 १६१. लोकप्रकाश, 3.984 १६२. लोकप्रकाश, 3.987 और 991 १६३. लोकप्रकाश, 3.994 और 1000-1002 १६४. सर्वार्थसिद्धि टीका, 1,1,6 १६५. (क) लोकप्रकाश, 3.1049
(ख) षट्खण्डागम 1/1,14 (ग) पंचसंग्रह मूल गाथा 1.138 (घ) द्रव्यसंग्रह टीका, 43.186 १६६. द्रष्टव्य- (क) लोकप्रकाश, 3.1051 (ख) तत्त्वार्थराजवार्तिक 1,1,24 १६७. (क) तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृष्ठ सं. 169, (ख) प्रमाणनयतत्त्वालोक 2.7 १६८. लोकप्रकाश, 3.1054 १६६. लोकप्रकाश, 3.1055 १७०. द्रष्टव्य
(क) लोकप्रकाश, 3.1056 से 1059 (ख) सिद्धिविनिश्चय में भी कहा गया है- अवधिज्ञान व विभंगज्ञान के अवधिदर्शन ही होता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृष्ठ 415 पर श्रुत, विभंग व मनःपर्यय दर्शन सम्बन्धी विचार बिन्दु से
उद्धृत १७१. लोकप्रकाश, 3.1063 की व्याख्या से उद्धृत, पृष्ठ 265 १७२. लोकप्रकाश, 3.1066-1067 १७३. तत्त्वार्थसूत्र 2.8 १७४. (क) भगवती सूत्र, शतक 2. उद्देशक 10 (ख) उत्तराध्ययन सूत्र 28.10
(ग) अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्त से होने वाला चैतन्य का अन्वयी उपयोग कहलाता है- सर्वार्थसिद्धि 2.8 की टीका से उदधत। (घ) स्व और पर को ग्रहण करने वाला परिणाम उपयोग है। षट्खण्डागम, धवला पुस्तक सं.
2/11 १७५. लोकप्रकाश, 3.1074 १७६. द्रष्टव्य-(क) लोकप्रकाश, 3.1075(ख) प्रज्ञापना सूत्र, प्रतिपत्ति 29, सूत्र 1908, 1909
(ग) सर्वार्थसिद्धि 2.9 की टीका से उद्धृत (घ) पंचास्तिकाय, गाथा 40
(ड) गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 672 १७७. व्याख्याप्रज्ञप्ति, सं. 12, उद्देशक 5, सूत्र 32