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पंचम अध्याय
जीव-विवेचन (4)
इस अध्याय में योग, मान (मापन), दिशा एवं गति के आधार पर जीवों के अल्पबहुत्व, अन्तर एवं भवसंवेध का निरूपण है। इनके विवेचन से भी जीवों की विभिन्न विशेषताएँ व्यक्त हुई
इकतीसवां द्वार : योग-विमर्श 'युज्' धातु से निष्पन्न योग शब्द धात्वर्थ योजन का अनुगमन करते हुए जीव को संसार और मोक्ष दोनों से जोड़ता है। भारतीय योग परम्परा में 'पातंजल योगसूत्र' चित्तवृत्तियों के निरोध द्वारा प्रायोगिक रीति से आध्यात्मिक उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करता है और कैवल्य पद की प्राप्ति कराता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि सात अंगों से युक्त समाधि, जो योग का आठवां अंग है, को भी योगदर्शन में एक प्रकार से योग कहा गया है।' बौद्ध एवं जैन दर्शन में भी योग की प्रायोगिक साधना का स्वरूप द्रष्टव्य है। बौद्धदर्शन में अभिधर्मकोश और विसुद्धिमग्गो इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। जैनदर्शन में आचारांगसूत्र में इसके लोगविपस्सी, कोहदंसी, माणदंसी, मायादंसी, लोभदंसी आदि शब्दों से कतिपय संकेत मिलते हैं।
जैनदर्शन में योग विषयक दो प्रमुख चिन्तनधाराएँ चलती हैं। एक विचारधारा के अनुसार योग संसार की ओर ले जाने वाले कर्मबन्ध का हेतु बनता है और दूसरी विचारधारा के अनुसार सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र स्वरूप सम्पूर्ण मोक्ष मार्ग का सहायक कारण योग है। पंचसंग्रह में योग के नामान्तरों का उल्लेख मिलता है
जोगो विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चिट्ठा।
सत्ती सामत्थं चिय जोगस्स हवन्ति पज्जाया।।' अर्थात् योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, सामर्थ्य ये योग के नामान्तर हैं।
यहाँ प्रथम विचारधारा के अनुसार योग का विचार किया जा रहा है, जिसके अन्तर्गत मन, वचन और काया के निमित्त से होने वाले आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन योग कहलाता है। कर्मप्रकृतिकार पुद्गलों के परिणमन, आलम्बन और ग्रहण के साधन को योग कहते हैं। इनके अनुसार योग वह शक्ति है जिससे जीव मन,वचन और काय का निर्माण करता है और वह मन, वचन और काय जिसका आलम्बन लेते हैं। यथा- वीर्यान्तराय के क्षय अथवा क्षयोपशम से आत्मा में