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जीव-विवेचन (4)
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वीर्य प्रकट होता है, उससे जीव औदारिक आदि शरीरों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है तत्पश्चात् औदारिक आदि शरीर पर्याप्तिं रूप में परिणमित करता है। श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें श्वासोच्छ्वास आदि रूप में परिणमन करता है ।
योग के भेद
प्रवृत्ति के प्रति उन्मुख शरीर, वचन और मन के कारण आत्मप्रदेशों में आन्तरिक और बाह्य दो कारणों से स्पन्दन - कम्पन होता है। आन्तरिक कारण है वीर्यान्तराय कर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम और बाह्य कारण है शरीर आदि की चेष्टा । तीन प्रकार के बाह्य निमित्तों के कारण योग तीन प्रकार का है - काययोग, वचनयोग और मनोयोग। *
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काययोग - वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में वीर्य प्रकट होता है। उससे जीव औदारिक आदि शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। तत्पश्चात् शरीर की चेष्टा से आत्मप्रदेशों में कम्पन होता है, यह कम्पन काययोग कहलाता है। '
वचनयोग- वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मशक्ति से और मत्यक्षरादि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त वाग्लब्धि द्वारा जीव वचन बोलने को उद्यत होता है यही वचनयोग है। मनोयोग - वीर्यान्तराय कर्म और अनिन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से मनोलब्धि से मनन रूप क्रिया करने को जीव जब उद्यत होता है तब वह मनोवर्गणाओं को ग्रहण कर उन्हें मन रूप में परिणत करता है और चिन्तन-मनन करता है, यही 'मनोयोग' है । "
व्यवहार में मन-वचन-काया की प्रवृत्ति ही मन-वचन-कार्य योग कहलाती है। योग के उपभेद
तीन प्रकार के योगों के उपभेदों की गणना करने पर योग के पन्द्रह भेद भी होते हैं। उनमें सात भेद काययोग के, चार भेद मनयोग के और चार ही भेद वचनयोग के गिने जाते हैं।' काययोग के सात प्रकार हैं- औदारिक, मिश्र औदारिक, वैक्रिय, मिश्र वैक्रिय, आहारक, मिश्र आहारक और तैजसकार्मण।‘सत्य, मृषा, सत्यमृषा, न सत्य न मृषा (असत्यामृषा) इस तरह मनोयोग के चार प्रकार हैं। वचन योग के भी इसी प्रकार से चार भेद होते हैं। ̈
द्रव्यानुयोग भाग प्रथम के 'योग' अध्ययन के आमुख में मन, वचन और काया के विषय से सम्बन्धित विशेष निरूपण मिलता है। मन आत्मा से भिन्न रूपी एवं अचित्त है। वह अजीव होकर भी जीवों में होता है, अजीवों में नहीं । भगवतीसूत्र में मन का स्वरूप इस प्रकार प्रतिपादित हुआ है- “नो पुव्विं मणे, मणिज्जमाणे मणे, नो मणसमयवीइक्कंते मणे । । ” ” अर्थात् मनन करते समय ही मन