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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन गुणस्थानों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते हैं और निश्चय ही उनका यहाँ से निम्न गुणस्थानों की
ओर पतन होता है। अतः उपशम या निरोध साधना का सच्चा मार्ग नहीं है क्योंकि उसमें स्थायित्व नहीं होता है।
आचार्य नेमिचन्द्र गोम्मटसार में दृष्टान्त द्वारा ग्यारहवें गुणस्थान का स्पष्टीकरण करते हैं कि जिस प्रकार कतकफल से युक्त जल का मल तल में दब जाता है अथवा शरद ऋतु में सरोवर का पानी जैसे मिट्टी के नीचे जम जाने से स्वच्छ दिखाई देता है, किन्तु उनकी निर्मलता स्थायी नहीं होती, समय आने पर वह पानी पुनः मलिन हो जाता है, उसी प्रकार जो आत्माएँ कर्ममल के दब जाने से नैतिक प्रगति एवं आत्मशुद्धि की इस अवस्था को प्राप्त करती हैं वे एक समयावधि के पश्चात् पुनः पतित हो जाती हैं।
इसी विषय में गीता कहती है- दमन या निरोध से विषयों का निवर्तन तो हो जाता है, लेकिन विषयों का रस अर्थात् वैषयिक वृत्ति का निवर्तन नहीं होता। वस्तुतः उपशमन की प्रक्रिया में संस्कार निर्मूल नहीं होने से उनकी परम्परा समय पाकर पुनः प्रवृद्ध हो जाती है। उपशान्त मोहगुणस्थान के अधिकारी-अविरत, देशविरत, प्रमत्त अथवा अप्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती जीव, प्रथम तीन कषायचतुष्क कर्मों को शान्त करने वाला जीव उपशम श्रेणी में चढ़ सकता है
असौ ह्युपशमश्रेण्यारम्भेऽनन्तानुबन्धिनः। कषायान् द्रागविरतो देशेन विरतोऽथवा।। प्रमत्तो वाऽप्रमत्तः सन् शमयित्वा ततः परम् ।
दर्शनमोहत्रितयं शमयेदथ शुद्धधीः ।। 'कर्मग्रन्थावचूरौ तु इहोपशमश्रेणिकृत अप्रमत्तयतिरेव । कर्मग्रन्थ की अवचूरि टीकाकार के अनुसार केवल अप्रमत्तसाधु ही उपशमश्रेणि में चढ़ सकता है।
प्रथम तीन संहनन २० वज्रऋषभ नाराच, ऋषभनाराच और नाराच धारक जीव ही उपशम श्रेणि का आश्रय करता है। शेष तीन (अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त) संहननधारी जीव नहीं करते हैं। उपाध्याय विनयविजय भी कहते हैं
श्रयन्त्युपशमश्रेणिमाद्यं संहननत्रयम्।
___ दधाना नार्धनाराचादिकं संहननत्रयम् ।।" उपशमश्रेणि जीव की विकास यात्रा-उपशम श्रेणि वाला निर्ग्रन्थ संयमी जीव प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान के बीच सैंकड़ों बार गमन करके अपूर्वकरण गुणस्थान में पहुँचता है। आठवें में पहुँचने के पश्चात् प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी कषाय, संज्वलन क्रोध, मान व माया तथा