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जीव-विवेचन (3) नौ नोकषाय इन कुल बीस (४+४+३+६) प्रकृतियों का नौवें गुणस्थान में उपशमन करता है। तदनन्तर संज्वलन लोभ का दसवें गुणस्थान में उपशमन होता है। संज्वलन लोभ के उपशमन होने से जीव ग्यारहवें उपशान्तमोह नामक गुणस्थान में पहुँच जाता है। यहाँ जघन्य एक समय से लेकर उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक कषाय उपशान्त रहते हैं। इस गुणस्थान की कालस्थिति पूर्ण होने पर अथवा भव का अन्त आने पर वह जीव निश्चय ही पतित होता है। पतित होते हुए वह पश्चानुपूर्वी क्रम से प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक आ जाता है। कुछ जीव प्रथम गुणस्थान तक पहुँच जाते हैं। इस तरह पतित होता हुआ जीव तद्भव मोक्षगामी नहीं होता है और अर्धपुद्गलपरावर्त से कुछ कम समय तक संसार में भ्रमण करता है।
एक जन्म में जीव उत्कृष्टतः दो बार उपशमश्रेणि कर सकता है और उसके सभी भवों को मिलाकर उत्कृष्टतः चार बार उपशमश्रेणि करता है। कर्मग्रन्थ के वृत्तिकार के अनुसार एक जन्म में एक ही बार उपशमश्रेणि करने वाला क्षपक श्रेणि में जाता है। परन्तु यदि वह वर्तमान जन्म में ही दो बार उपशमश्रेणि करे तो क्षपक श्रेणि ग्रहण नहीं करता है
___कृतैकोपशमश्रेणिः क्षपकश्रेणिमाश्रयेत्।
भवेत् तत्र द्विः कृतोपशमश्रेणिस्तु नैव ताम् ।। 12. क्षीण कषाय गुणस्थान
जो साधक क्षायिक विधि से कषायों का निर्मूलन करते हुए विकास करते हैं, वे दसवें गुणस्थान में अवशिष्ट सूक्ष्म लोभ को भी नष्ट कर सीधे बारहवें गुणस्थान में आरोहण कर लेते हैं। इस वर्ग में आने वाला साधक मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का सर्वथा क्षय कर देता है और उनकी सत्ता मात्र भी शेष नहीं रहती है, अतः इस गुणस्थान का नाम क्षीणकषाय अथवा क्षीणमोह है। इस गुणस्थान के प्राप्तकर्ता को क्षीणकषाय-छद्मस्थ वीतराग कहते हैं
क्षीणाः कषाया यस्य स्युः स स्यात्क्षीणकषायकः । वीतरागः छद्मस्थश्च गुणस्थानं यदस्य तत्।।
क्षीणकषायछद्मस्थ वीतरागाह्वयं भवेत् ।। आचार्य नेमिचन्द्र गोम्मटसार में इसका पारिभाषिक लक्षण करते हैं कि जिस जीव की मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ निःशेष क्षीण अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश से रहित हो गयी हैं, वह निःशेष क्षीणमोह अथवा क्षीणकषाय है।३२५ क्षपकश्रेणि- उपाध्यायविनयविजय के अनुसार श्रेष्ठ संहनन वाला और आठ वर्ष से अधिक वय वाला मनुष्य अप्रमत्त रूप सद्ध्यान (धर्मध्यान व शुक्लध्यान) करते हुए क्षपक श्रेणि आरम्भ करता