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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन
तत्त्वज्ञानवाली चतुर्थ, पंचम आदि औपशमिक श्रेणियों से च्युत होकर जब कोई आत्मा तत्त्वज्ञानशून्य मिथ्यादृष्टि वाली प्रथम भूमिका के उन्मार्ग की ओर झुकती है, परन्तु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करती, ऐसे मिथ्यात्व की ओर अभिमुख जीव को सम्यक्त्व का जो आंशिक आस्वादन शेष रहता है, उसी आंशिक आस्वादन के कारण आत्मा की यह अवस्था सासादन गुणस्थान कहलाती है।
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इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा आत्मशुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है अतः इसकी गणना प्रथम के पश्चात् की जाती है । यद्यपि यह गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से विकासशील कहा जा सकता है, परन्तु वस्तुतः यह गुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है।
सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जैसे खीर का भोजन करने के बाद वमन करने वाले को खीर का आंशिक स्वाद आता रहता है, वैसे ही सम्यक्त्व के परिणामों का त्याग करने के पश्चात् मिथ्यात्व की ओर अभिमुख जीव को कुछ समय पर्यन्त सम्यक्त्व का आस्वाद अनुभव में रहता है। इसीलिए जीव की यह अवस्था सास्वादन गुणस्थान कहलाती है। **
सास्वादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्व का उदय न होने से मिथ्यादृष्टि नहीं है, सम्यक् रुचि का अभाव होने से सम्यग्दृष्टि भी नहीं है तथा सम्यग्मिथ्यात्वरूप रुचि का अभाव होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं है, परन्तु सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का प्रतिबन्ध करने वाले अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से उस जीव में विपर्ययज्ञान ( विपरीताभिनिवेश / मिथ्याज्ञान) रहता है। वह जीव मिथ्यात्व की ओर अभिमुख हो रहा है वह मिथ्यात्वी के तुल्य कर्म करता है । यह विपर्यय ज्ञान दो प्रकार का होता है- अनन्तानुबन्धिजनित और मिथ्यात्वजनित । अनन्तानुबन्धिजनित विपर्ययज्ञान दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है। अतः यह गुणस्थान मिथ्यात्वगुणस्थान से स्वतंत्र गुणस्थान है। २५६
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में जब जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छह आवलिका शेष रहने पर अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक कषाय का उदय होने पर सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है तब जीव सासादन गुणस्थान में आ जाता है । पतनोन्मुख आत्मा की इस गुणस्थान तक पहुँचने की मध्यावधि (एक समय से छह आवलिका) ही इसका स्थितिकाल है। 3. सम्यक् - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
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जब किसी जीव का तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व और तत्त्वार्थ अश्रद्धान रूप मिथ्यात्व दोनों का मिला हुआ परिणाम द्रष्टव्य होता है तो वह आत्मविकास का तृतीय स्तर 'सम्यक्मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान कहलाता है। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों का मिश्रण होने से इसे 'मिश्र ' गुणस्थान भी कहते हैं। उपाध्याय विनयविजय इसका लक्षण करते हैं कि जब दर्शन - मोहनीय के तीन पुंजों- शुद्ध