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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन पाँच भेद हैं। धवलाटीकाकार मिथ्यात्व के संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत ये तीन भेद स्वीकार करते हैं
संसइदमभिग्गहियं अणभिग्गहिदं ति तं तिविहं ।। ५० प्रथम गुणस्थान की अवस्था में जीव के कुछ आन्तरिक और बाह्य लक्षण प्रकट होते हैंआन्तरिक लक्षण
१. आध्यात्मिक दृष्टि से यह आत्मा की बहिर्मुखी अवस्था है।
२. आत्मा यथार्थ ज्ञान और सत्यानुभूति से वंचित रहती है। . ३. ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होने वाले तीनों ज्ञान मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्याज्ञान होते हैं। बाह्य लक्षण
१. मिथ्यात्व गुणस्थान वाला जीव आप्त, आगम और पदार्थ तीनों पर श्रद्धान नहीं करता है। २. अयथार्थ दृष्टिकोण के कारण असत्य को सत्य और अधर्म को धर्म मानकर चलता है। ३. प्रथम भूमिका वाला जीव पररूप को स्व-रूप समझकर उसी की प्राप्ति के लिए प्रतिक्षण
लालायित रहता है और राग-द्वेष की प्रबल चोटों का शिकार बनकर तात्त्विक सुख से
वंचित रहता है। ४. प्रथम अवस्था का जीव तत्त्व की अश्रद्धा के साथ अनेकान्तात्मक धर्म वाली वस्तु के स्वभाव
को भी पसन्द नहीं करता। पारिभाषिक शब्दों में कहें तो रत्नत्रयात्मक धर्म को पसन्द नहीं करता। गोम्मटसार जीवकाण्ड में नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती इसे दृष्टान्त के साथ प्रस्तुत करते हैं, यथा- पित्त ज्वर से ग्रस्त व्यक्ति मीठे दूध आदि रस को पसन्द नहीं करता, उसी
तरह मिथ्यात्व गुणस्थानक जीव होता है। ५. नैतिक दृष्टि से इस अवस्था में जीव को शुभाशुभ अथवा कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक नहीं
होता। ६. यह जीव नैतिक विवेक और आचरण से शून्य होता है। ७. मानसिक दृष्टि से मिथ्यात्व गुणस्थान में प्राणी तीव्रतम क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों ___ के वशीभूत रहता है। ८. वासनात्मक प्रवृत्तियाँ उस जीव पर पूर्ण रूप से हाबी होती है।
प्रथम गुणस्थान वाली आत्मा भव्य और अभव्य के भेद से दो प्रकार की होती हैं। भव्य आत्मा-जो आत्मा भविष्य में कभी न कभी यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त हो सम्यक् आचरण से आध्यात्मिक विकास कर पूर्णत्व प्राप्त कर सकेगा वह 'भव्यात्मा' है।