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जीव-विवेचन (3)
203 गुणस्थान का काल छह आवलिका होता है।४२ चौथे गुणस्थान का समय तैंतीस सागरोपम से कुछ अधिक है। पाँचवें और तेरहवें गुणस्थानकों का स्थिति काल नौ वर्ष कम कोटि पूर्व है।" चौदहवें गुणस्थानक का स्थितिकाल विलम्ब किए बिना ञ, म, ङ, ण, न - इन पाँच अक्षरों के उच्चारण काल जितना है। शेष आठ गुणस्थानकों का काल अन्तर्मुहूर्त
है। ५. जैन दर्शन नियति और पुरुषार्थ के सिद्धान्तों के संदर्भ में एकान्तिक दृष्टिकोण नहीं
अपनाता है, फिर भी यदि पुरुषार्थ और नियति के प्राधान्य की दृष्टि से गुणस्थान-सिद्धान्त पर विचार करें तो प्रथम से सातवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में नियति की प्रधानता प्रतीत होती है और आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में पुरुषार्थ का प्राधान्य प्रतीत होता है।
अब प्रस्तुत है चौदह गुणस्थानों का विशेष स्वरूप1. मिथ्यात्व गुणस्थान- दर्शन मोहनीय के भेद मिथ्यात्व-मोहनीय के कर्मोदय से जीव-अजीव, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि के सम्बन्ध में सम्यक् समझ न होने की अवस्था को मिथ्यात्व गुणस्थान कहा जाता है। मिथ्यात्व गुणस्थान की अवस्था में जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। मिथ्यात्व अज्ञान स्वरूप होते हुए भी गुणस्थान की कोटि में परिगणित होता है क्योंकि मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान भी कर्मों के क्षयोपशम से होते हैं। जिस प्रकार सघन बादलों के आवरण से सूर्य की प्रभा सर्वथा आच्छादित नहीं होती है, दिन-रात का पता चलता है उसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से जीव का उपयोग सर्वथा आवरित नहीं होता है। अन्यथा निगोदिया जीव भी अजीव कहे जायेंगे। इसी कारण से मिथ्यात्व को गुणस्थान की कोटि में रखा है। प्रथम गुणस्थान आत्मा की सर्वथा अधःपतित अवस्था है। इस गुणस्थान में मोह की दोनों शक्तियाँ प्रबल होती हैं, फलस्वरूप आध्यात्मिक स्थिति निम्न होती है। कुछ विद्वान् इसे 'मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान भी कहते हैं।
मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य ये सभी एकार्थक शब्द हैं। मिथ्यात्व काल की अपेक्षा से तीन प्रकार का है- अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त।" प्रथम भेद अभव्य जीवों की अपेक्षा से है जो कभी मुक्त नहीं होते, दूसरा भेद भव्य जीवों की अपेक्षा से है जो अनादिकालीन मिथ्यादर्शन रूप ग्रन्थि का भेदन करके सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं और तीसरा भेद उन जीवों की अपेक्षा से है जो एक बार सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद पुनः मिथ्यात्वी हो जाते हैं। तीसरे भेद की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और देशोन अर्ध पुद्गल परावर्त है। गोम्मटसार के अनुसार विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान रूप मिथ्यात्व के