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जीव-विवेचन (3) (3) गुणश्रेणी- कर्मों के क्रम में ऐसा परिवर्तन करना जिससे विपाक काल के पूर्व ही उनका
फलभोग किया जा सके। (4) गुणसंक्रमण- कर्मों का उनकी अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तर करना अर्थात् दुःखद वेदना
को सुखद वेदना में बदल देना। (5) अपूर्वबन्ध- क्रियमाण क्रियाओं के परिणामस्वरूप होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक
और अल्पतर मात्रा में होना।
यह अपूर्वकरण की प्रक्रिया अभव्य जीव कभी भी नहीं कर सकता है, भव्य जीव ही कर सकता है, किन्तु वह भी पुनः पुनः नहीं कर सकता। प्रथम गुणस्थान में होने वाले अपूर्वकरण में स्थितिघात और रसघात दो प्रक्रिया ही होती है तथा सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थान में होने वाले अपूर्वकरण में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्वबन्ध पाँचों प्रक्रियाएँ होती हैं। अनिवृत्तिकरण- अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा राग और द्वेष की ग्रन्थियों का भेदन कर आत्मा अग्रिम प्रक्रिया अनिवृत्तिकरण करता है। इस प्रक्रिया में आत्मा मोह के आवरण को अनावृत्त कर अपने यथार्थ स्वरूप में अभिव्यक्त होती है। ऐसा विशुद्ध अध्यवसाय जिससे सम्यक्त्व प्राप्त किए बिना जीव निवृत्त नहीं होता है, उसे 'अनिवृत्तिकरण' कहते हैं।“ अनिवृत्तिकरण में पुनः स्थितिघात, रसघात आदि पाँचों प्रक्रियाएँ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण के लिए होती हैं।
यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा जैनधर्म की एक प्रमुख अवधारणा है तथापि प्राचीन जैन आगम साहित्य यथा- आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती आदि में इसका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। मात्र समवायांग आगम ग्रन्थ में १४ गुणस्थानों के नामों का निर्देश हुआ है, परन्तु यहाँ गुणस्थान 'जीवस्थान' नाम से अभिहित हैं- “कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा- मिच्छादिट्ठी, सासायणसम्मदिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी, अविरय-सम्मदिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनियट्ठिबायरे, सुहुमसंपराए-उवसामए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगीकेवली, अयोगीकेवली ।"२२६
समवायांग के पश्चात् ‘आवश्यकनियुक्ति'२२७ में गुणस्थानों के १४ नामों का निर्देश मिलता है, परन्तु वहाँ भी इन्हें गुणस्थान नहीं कहा गया है। श्वेताम्बर परम्परा में इन १४ अवस्थाओं के लिए गुणस्थान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 'आवश्यकचूर्णि'ए में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में कषायपाहुड के अतिरिक्त षट्खण्डागम, मूलाचार", भगवती आराधना एवं समयसार २३ जैसे आध्यात्मिक ग्रन्थों में तथा तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि", भट्ट अकलंक