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जीव-विवेचन (2)
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क्र. कषाय अनन्तानुबन्धी । तीव्र/अनुत्कृष्ट । मन्द/अजघन्य । मन्दतर/जघन्य १ क्रोध | शिलाभेद सम क्रोध | पृथ्वीभेद सम क्रोध धूलिरेखा सम क्रोध जलरेखा सम क्रोध २ | मान शैलवत् मान अस्थिवत् मान | काष्ठवत मान बैंतवत् मान ३ माया बांस-जड़ समान मैंढे के सींग के गोमूत्र समान माया खुरपा समान माया माया
समान माया ४ | लोभ । कृमिराग तुल्य लोभ | चक्रमल तुल्य लोभ | शरीरमल तुल्य लोभ | हल्दी के रंग तुल्य
लोभ
कषायोत्पत्ति के कारण - -
चतुर्भिः कारणैरेते प्रायः प्रादुर्भवन्ति च ।
क्षेत्रं वास्तुशरीरं च प्रतीत्योपधिमंगिनाम् ।। उपाध्याय विनयविजय क्षेत्र, वास्तु, शरीर और वस्तु इन चार कारणों से कषाय की उत्पत्ति बताते हैं। कषायपाहुड के चूर्णिकार अर्थनयों की अपेक्षा राग-द्वेष को एवं शब्दनयों की अपेक्षा स्वयं कषाय को उत्पत्ति के हेतु मानते हैं।२६६ कषायों का अल्पबहुत्व
लोक में कषाय रहित अल्पजीव हैं, इससे अनन्त गुना मानी जीव हैं, इससे बहुत अधिक क्रोधी जीव हैं, इससे अधिक मायावी और इससे भी अधिक लोभी जीव हैं।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मूर्छिम व गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्य, देव और नारक सभी जीव सर्व कषायों से पूर्ण होते हैं।
नाना जीवों की अपेक्षा कषाय सर्वकाल होता है और एक जीव की अपेक्षा से कषाय अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त है। कषाय विशेष की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
समीक्षण इस अध्याय में अवगाहना, समुद्घात, गति, आगति, अनन्तराप्ति, समयसिद्धि, लेश्या, दिगाहार, संहनन और कषाय इन दस द्वारों के आधार पर चार गतियों के जीवों की विभिन्न विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। विनयविजय कृत लोकप्रकाश ग्रन्थ के द्रव्यलोक प्रकाश के तृतीय सर्ग से नौवें सर्ग तक जीव विषयक वर्णन को मुख्य आधार मानकर यथावसर जैन आगमों, कर्मग्रन्थों एवं जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थों का भी मन्तव्य दृष्टिपथ में रखकर जीव की विभिन्न अवस्थाओं, किंवा विशेषताओं का निरूपण किया गया है। अवगाहन आदि दस द्वारों के विवेचन से