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जीव-विवेचन (3) बार प्रकट होकर नष्ट हो जाता है वह प्रतिपाती अवधिज्ञान कहलाता है। (6) अप्रतिपाती अवधिज्ञान- जिस अवधिज्ञान से अलोक के एक आकाश प्रदेश को जाना जाता है और वह केवलज्ञान प्राप्ति तक विद्यमान रहता है, उसे अप्रतिपाती अवधिज्ञान कहते हैं। 4.मनःपर्यवज्ञान
'परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते' (सर्वार्थसिद्धि) अर्थात् दूसरे के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना दूसरों के मन में स्थित पर्यायों को स्पष्ट जानने वाला मनःपर्ययज्ञान कहलाता है। जीव मनःपर्यव ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से द्रव्यविशेषरूप मनोवर्गणाओं से विचाररूप पर्यायों को इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के बिना ही साक्षात् जानता है, वह मनःपर्ययज्ञान कहलाता है। इस ज्ञान के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों की दो धाराएँ प्रचलित हैं। प्रथम धारा आवश्यकनियुक्ति तथा तत्त्वार्थभाष्य" सम्मत है। जिसमें मनःपर्ययज्ञान परकीय मन में चिन्त्यमान पदार्थों को जानता है। दूसरी धारा के अनुसार मनःपर्ययज्ञान चिन्तन में लगी मनोद्रव्य की पर्यायों को जानता है, परन्तु अनुमान से जानता है। यह परम्परा विशेषावश्यक भाष्य" (गाथा ८१४) एवं नन्दीचूर्णि" सम्मत है। इस ज्ञान की उत्पत्ति और प्रवृत्ति मनुष्य क्षेत्र में ही होती है और मात्र संयमी मनुष्य ही इसके अधिकारी होते हैं।
मनःपर्ययज्ञान और अवधिज्ञान दोनों देशप्रत्यक्ष होते हुए भी परस्पर विशुद्धि, क्षेत्र विस्तार, स्वामी और विषय की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न हैं। जिन रूपी द्रव्यों को अवधिज्ञानी जानता है उसे ही मनःपर्यायज्ञानी अधिक स्पष्टतया से मनोगत होने पर भी जान लेता है। क्षेत्र की अपेक्षा से अवधिज्ञान सम्पूर्ण लोकपर्यन्त रूपी द्रव्यों को जानता है। जबकि मनःपर्ययज्ञान मनुष्य लोक प्रमाण है। अवधिज्ञान संयमी-असंयमी मनुष्य और तिर्यच व देव को होता है, जबकि मनःपर्यय ज्ञान अप्रमत्त संयमी मुनि को ही होता है। अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्यों की असम्पूर्ण पर्याय होती हैं और मनःपर्ययज्ञान अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग को विषय बनाता है। अतः अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान अधिक विशुद्ध और सूक्ष्म है।
मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति और विपुलमति भेद से दो प्रकार का है।" ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान एक, दो या तीन विषयों को अधिक से अधिक ग्रहण कर सकता है और विपुलमति मनःपर्ययज्ञान नाना प्रकार के विषय पर्यायों को ग्रहण करता है। ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान प्रतिपाती है और विपुलमति मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति तक स्थिर रहता है। 5. केवलज्ञान
ज्ञानावरण का सर्वथा क्षय होने से प्रकट होने वाला ज्ञान 'केवलज्ञान' कहलाता है। अनन्त