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जीव-विवेचन (3)
और विपुलमति उन्हीं भावों को कुछ अधिक सुस्पष्ट जानता है। केवलज्ञानी द्रव्य से सर्वद्रव्य को, क्षेत्र से सर्व (लोक-अलोक) क्षेत्र को, काल से भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों को तथा भाव से सर्वद्रव्यों के सर्वभावों या सर्वपर्यायों को जानता है। ज्ञान की न्यूनाधिकता
संसार के कुछ जीव दो ज्ञान वाले हैं, कुछ तीन ज्ञान वाले, कुछ चार ज्ञान वाले और कुछ एक ज्ञान वाले हैं।"° दो ज्ञान वाले जीव मतिज्ञान और श्रुतज्ञान युक्त होते हैं। तीन ज्ञान वाले जीव मति और श्रुत के साथ अवधिज्ञान या मनःपर्ययज्ञान से युक्त होते हैं। चार ज्ञान वाले में मनःपर्यय पर्यन्त चारों ज्ञान होते हैं और एक ज्ञान वाला जीव केवलज्ञान से युक्त होता है। केवलज्ञानी जीव के सम्मुख शेष चारों ज्ञान व्यर्थ हो जाते हैं। अज्ञानी जीवों में से कुछ जीव दो अज्ञान वाले मतिअज्ञानी व श्रुतअज्ञानी तथा कुछ तीन अज्ञान-विभंगज्ञान पर्यन्त वाले होते हैं। अज्ञान स्वरूप
ज्ञान का अशुद्ध रूप ही अज्ञान है। अज्ञान शब्द में 'अ' उपसर्ग निषेधार्थक न होकर कुत्सित अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतः अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है, अपितु मिथ्या ज्ञान है। यह मिथ्याज्ञान मिथ्यात्व के योग से उत्पन्न होता है। प्रत्येक जीव या तो ज्ञानी है या अज्ञानी, कोई इनसे मुक्त नहीं। यदि मुक्त होगा तो वह जीव नहीं, अजीव होगा। अज्ञान तीन प्रकार का हैमतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान। मिथ्यादृष्टि जीव के मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान होते हैं। विभंग से यहाँ तात्पर्य है ज्ञान का विपरीत अज्ञान।" जीवों में होने वाला ज्ञान और अज्ञान
सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय जीवों में शेष जीवों की अपेक्षा से अत्यन्त अल्प मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान होते हैं। सम्यक्दृष्टि विकलेन्द्रिय जीव मतिज्ञान व श्रुतज्ञान के धारक होते हैं और मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय जीव मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी होते हैं। सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय में कुछ दो ज्ञान वाले और कुछ दो अज्ञान वाले होते हैं। गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय में कुछ दो या तीन ज्ञान से युक्त होते हैं तथा कुछ दो या तीन अज्ञान से युक्त होते हैं।" सम्मूर्छिम मनुष्य को प्रथम दो अज्ञान होते हैं" और गर्भज मनुष्य सभी ज्ञान अथवा अज्ञान का धारक होता है। सम्यक्दृष्टि देव व नारकी को प्रथम तीन ज्ञान होते हैं तथा मिथ्यादृष्टि देव व नारकी को तीनों अज्ञान होते