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जीव-विवेचन (3) 1. चक्षुदर्शन- दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से और चक्षु इन्द्रिय द्वारा मूर्त्तद्रव्य का विकलरूप (एकदेश) जो सामान्य बोध होता है वह चक्षुदर्शन है। चक्षु इन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जीवों से प्रारम्भ होती है, अतः पंचेन्द्रियों में तो इसकी प्राप्ति होती ही है। 2. अचक्षुदर्शन- दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से और चक्षु से भिन्न शेष चार इन्द्रियों एवं मन से मूर्त और अमूर्त द्रव्यों का विकलरूप जो सामान्य प्रतिभास होता है वह अचक्षुदर्शन कहलाता
3. अवधिदर्शन- दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से बिना किसी इन्द्रिय की सहायता के मूर्त द्रव्य को विकलरूप से जो सामान्य अवबोधन करता है वह अवधिदर्शन कहलाता है। यह दर्शन मात्र अवधिज्ञानी जीव को ही प्राप्त होता है।
जिस तरह अवधिज्ञान के पूर्व अवधिदर्शन होता है उसी तरह उसकी सत्ता विभंग ज्ञान में भी होती है। सम्यक् दृष्टि जीव में यह दर्शन अवधिज्ञान से पूर्व होता है और मिथ्यादृष्टि जीव में विभंगज्ञान से पूर्व होता है। वस्तुतः दर्शन अनाकार रूप है और वह दोनों में समान है। अतः विभंगदर्शन नाम अलग से नहीं कहा गया है। परन्तु कुछ विद्वान तत्त्वार्थवृत्तिकार और कर्मप्रकृतिकार विभंगज्ञान में अवधिदर्शन का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं उनके अनुसार यह दर्शन तो मात्र सम्यग्दृष्टि जीवों को ही होता है, शेष को नहीं।" 4. केवलदर्शन- समस्त कर्म आवरणों के क्षय से मूर्त-अमूर्त द्रव्यों का सकलरूप से जो सामान्य अवबोध होता है वह 'केवलदर्शन' है। यह केवलज्ञानी को होता है। अल्पबहुत्व- अवधिदर्शन वाले जीव सबसे अल्प हैं, इससे असंख्य गुना चक्षुदर्शन वाले, इससे अनन्त गुणा केवलदर्शन वाले जीव और सर्वाधिक जीव अचक्षुदर्शन वाले हैं।७२
अट्ठाइसवांद्वार : उपयोग विचार 'उपयोगो लक्षणम्" अर्थात् जीव का लक्षण उपयोग है। जैन आगमों में ज्ञान एवं दर्शन को उपयोग कहा गया है। ज्ञान एवं दर्शन दोनों जीव के शाश्वत गुण हैं। ये गुण जीव को अजीवों से भिन्न प्रतिपादित करते हैं। सदैव जीव के साथ रहते हुए भी ये अपनी भिन्न-भिन्न विशेषताएँ रखते हैं अर्थात् जीव को एक समय में एक ही उपयोग होता है ज्ञान या दर्शन। उपयोग के रूप में ज्ञान एवं दर्शन युगपद्भावी नहीं होते हैं, अपितु क्रमभावी होते हैं।
उपयोग के दो भेद किए जाते हैं- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। साकारोपयोग के अन्तर्गत पांच ज्ञान और तीन अज्ञान को ग्रहण किया जाता है, यथा- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान,
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