________________
187
जीव-विवेचन (3) का अन्तरंग कारण श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय का क्षयोपशम है। शब्द या संकेत इसमें निमित्त मात्र होता है। वस्तुतः ज्ञान तो आत्मा में ही प्रकट होता है। इस दृष्टि से जीव ही श्रुत है, परन्तु श्रुतज्ञान का कारणभूत शब्द उपचार से श्रुतज्ञान कहलाता है।
श्रुतज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय निमित्त रूप है फिर भी वह मतिज्ञान से भिन्न है, क्योंकि मतिज्ञान वर्तमान कालवर्ती एवं स्थूल विषय को ग्रहण करता है जबकि श्रुतज्ञान त्रिकालविषयक है और सूक्ष्म अर्थ को ग्रहण करता है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान से अत्यधिक विस्तृत एवं विशुद्ध है।
श्रुतज्ञान के भेदविषयक अनेक मत सम्प्राप्त होते हैं। अनुयोगद्वारसूत्र में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से श्रुतज्ञान चार प्रकार का कहा गया है। नन्दीसूत्र में इस ज्ञान के १४ भेदों का वर्णन समुपलब्ध होता है। श्रुतज्ञान के दो भेद- द्रव्यश्रुत और भावश्रुत भी कहे गए हैं। लोकप्रकाशकार ने आगम सम्मत १४ भेदों के वर्णन के साथ श्रुतज्ञान के अन्य बीस भेदों का भी उल्लेख किया है।"चौदह भेद नामोल्लेख सहित इस प्रकार हैं
वर्णों के निमित्त से उत्पन्न श्रुतज्ञान अक्षस्श्रुतज्ञान कहलाता है। यह संज्ञा, व्यंजन और लब्ध्यक्षर के भेद से तीन प्रकार का है। उच्च श्वासोच्छ्वास, थूकना, खांसना, छींकना आदि अवर्णात्मक संकेतों से उत्पन्न श्रुतज्ञान अनक्षरश्रुतज्ञान होता है। दीर्घकालिकी संज्ञा से युक्त संज्ञी का श्रुतज्ञान संज्ञिश्रुत है। संज्ञिश्रुत से भिन्न असंज्ञी जीवों में होने वाला श्रुतज्ञान असंज्ञिश्रुत कहलाता है। सर्वज्ञ और अर्हत् द्वारा उपदिष्ट द्वादशांग रूप गणिपिटक सम्यक् श्रुत कहलाता है और मिथ्यादृष्टि एवं अज्ञानियों द्वारा विपरीत बुद्धि से कल्पित ग्रन्थ मिथ्याश्रुत कहलाता है। यह भेद वक्ता की विशिष्टता के आधार पर किए गए हैं।" श्रुतज्ञान द्रव्य अपेक्षा से एक पुरुष के आश्रित सादि-सान्त और अनेक के आश्रित अनादि-अनन्त होता है। क्षेत्र के अन्तर्गत भरत और ऐरवत क्षेत्र की अपेक्षा से साधन्त है और महाविदेह की अपेक्षा से अनादि अनन्त है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा से सादि-सान्त और महाविदेह के काल की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है। भवसिद्धिक जीव की दृष्टि से श्रुतज्ञान सादि-सान्त और अभवी जीव के आश्रित अनादि अनन्त है। इस तरह श्रुतज्ञान सादि, अनादि, सान्त और अनन्त भेदों वाला है। जहाँ पाठों की सदृशता होती है वह गमिकश्रुत कहलाता है। द्वादशांगों में दृष्टिवाद गमिकश्रुत है। गमिक से भिन्न अगमिकश्रुत होता है। आचारांग आदि १२ अंग आगमों को अंगप्रविष्ट कहते हैं और आवश्यकसूत्र एवं आवश्यक से व्यतिरिक्त अंगबाह्य आगमों को अनंगप्रविष्ट कहा जाता है।५६
पर्याय, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति, अनुयोग, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृत, वस्तु और पूर्व ये दस एवं 'समान' शब्द से युक्त पर्याय समान आदि अन्य दस भेद मिलकर श्रुतज्ञान के बीस अन्य भेदों