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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन
तत्त्वार्थवार्तिककार भट्ट अकलंक ने संज्ञा को प्रतिपादित करते हुए बताया कि हित की प्राप्ति में और अहित के परिहार में यह गुण है, यह दोष है, इस प्रकार की विचारात्मक परिणति 'संज्ञा' कहलाती है- “हिताहितप्राप्तिपरिहारयोर्गुणदोष- विचारणात्मिका संज्ञा।"
प्रस्तुत संदर्भ में संज्ञा शब्द का अर्थ जो हमें अभीष्ट है वह इस प्रकार है- एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी संसारी जीवों में आहार, भय, मैथुन व परिग्रह इन चारों के प्रति जो अभिलाषा पायी जाती है उसका नाम संज्ञा है।।
आचारांग नियुक्ति में संज्ञा के दो प्रकार निरूपित हैं - १. ज्ञान संज्ञा २. अनुभव संज्ञा। उपाध्याय विनयविजय ने इनका उल्लेख इस प्रकार किया है
संज्ञा स्यात् ज्ञानरूपैका द्वितीयानुभवात्मिका।
तत्राद्या पंचधा ज्ञानमन्या च स्यात् स्वरूपतः।।" वाचक उमास्वाति ने जहाँ तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में संज्ञा को मात्र मतिज्ञान का पर्याय स्वीकार किया है वहाँ आचारांग नियुक्ति में इसे पांचों ज्ञानों का द्योतक प्रतिपादित किया गया है। उपाध्याय विनयविजय (१७वीं शती) ने आचारांग नियुक्ति को आधार बनाकर ज्ञान संज्ञा के पाँचों भेदों को उपस्थापित किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि विनयविजय भी संज्ञा का अर्थ ज्ञान स्वीकार करते हैं। ज्ञान संज्ञा एवं अनुभव संज्ञा ज्ञान संज्ञा- 'संज्ञा' शब्द का प्रयोग ज्ञान के अर्थ में भी हुआ है, इसलिए आचारांग नियुक्तिकार ने ज्ञानसंज्ञा के पांच प्रकार प्रतिपादित किए हैं- १. मतिज्ञान संज्ञा २. श्रुतज्ञान संज्ञा ३. अवधिज्ञान संज्ञा ४. मनःपर्यवज्ञान संज्ञा ५. केवलज्ञान संज्ञा।" केवलज्ञान संज्ञा मात्र क्षायिकी है एवं शेष चारों क्षायोपशमिक हैं। अनुभव संज्ञा-आहार आदि संज्ञाओं को अनुभव संज्ञा कहते हैं। प्रायः यह अनुभव संज्ञा ही संज्ञा के रूप में प्रसिद्ध है। इसके चार, दस एवं सोलह भेद प्राप्त हैं1.चार भेद-आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा व परिग्रह संज्ञा।" 2.दस भेद- आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा, क्रोध संज्ञा, मान संज्ञा, माया संज्ञा, लोभ संज्ञा, लोक संज्ञा और ओघ संज्ञा।" 3.सोलह भेद-पूर्व की दस और सुख संज्ञा, दुःख संज्ञा, मोह संज्ञा, विचिकित्सा संज्ञा, शोक संज्ञा व धर्म संज्ञा।"
यह संज्ञा जीवों के स्वकृतकर्मोदय से उत्पन्न होती है।