________________
जीव-विवेचन (3)
177
इन्द्रिय
| द्रव्येन्द्रिय ।
। भावेन्द्रिय |
निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय
उपकरण द्रव्येन्द्रिय लब्धि भावेन्द्रिय
उपयोग भावेन्द्रिय
बाह्य आभ्यन्तर
भावेन्द्रिय की सहायिका 'द्रव्येन्द्रिय' कहलाती है। द्रव्येन्द्रिय पुद्गलों से निर्मित होती है जबकि भावेन्द्रिय आत्मप्रदेशों से सम्बन्धित होती हैं।" द्रव्येन्द्रियों के आधार पर ही जीवों का नामकरण होता है, भावेन्द्रियों के आधार पर नहीं। जाति-नाम कर्म और शरीर नाम-कर्म के उदय से पुद्गल द्रव्यों की रचना का नाम 'निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय' है और उस पुद्गलस्कन्थ को अपने कार्य में प्रवृत्त करने वाली या उपयोग में सहायक बनने वाले तत्त्व को 'उपकरण द्रव्येन्द्रिय' कहते हैं।" निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय के भी बाह्य और आभ्यन्तर दो अवान्तर भेद हैं। स्थूल पुद्गल रचना बाह्य निवृत्ति एवं सूक्ष्म पुद्गल रचना आभ्यन्तर निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय होती है।
आत्मा के परिणाम को भाव कहते हैं उन भावों को ग्रहण करने वाली इन्द्रिय 'भावेन्द्रिय' कहलाती है। मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई विशुद्धि जो जीव की अर्थ ग्राहकता शक्ति है उसे 'लब्धि भावेन्द्रिय' कहते हैं और अर्थ ग्रहण करने के व्यापार को 'उपयोग भावेन्द्रिय कहते हैं।"
'श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रस, गंध और वर्ण रूप प्रतिनियत विषयों को ग्रहण करने वाला मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का व्यापार उपयोगभावेन्द्रिय है। यहाँ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के कथन से अतीन्द्रिय अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान का तत्त्वार्थभाष्यकार निषेध करते हैं क्योंकि अतीन्द्रिय ज्ञान इन्द्रियों की अपेक्षा से उत्पन्न नहीं होते हैं। विज्ञान रूप और अनुभव रूप से उपयोग द्विविध होता है। घटादि पदार्थों की उपलब्धि को विज्ञान रूप और सुखदुःखादि के वेदन को अनुभव रूप कहते हैं। यह उपयोग पांचों इन्द्रियों से होता है, परन्तु एक समय में एक ही इन्द्रिय द्वारा उपयोग होता है। उपयोग की गति अति सूक्ष्म होने से विषय का ज्ञान पांचों इन्द्रियों से एक ही समय में होता हुआ प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में उनका समय भिन्न-भिन्न है।