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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन इन्द्रिय प्रवृत्ति क्रम
निर्वृत्ति, उपकरण, लब्धि और उपयोग इन्द्रियाँ क्रम पूर्वक अर्थबोध करती हैं। निवृत्ति के 'बिना उपकरण की रचना नहीं हो सकती और उपकरण के बिना उपयोग की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार लब्धि के बिना निवृत्ति, उपकरण और उपयोग प्रवृत्त नहीं होते हैं। तत्तद् इन्द्रिय नामकर्म के बिना इन्द्रियों के आकार की रचना नहीं हो सकती और मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम के बिना ज्ञान अपने-अपने विषय में प्रवृत्त नहीं होता। अतएव इन चारों के समूह की इन्द्रिय संज्ञा होती है, इनमें से अन्यतम की नहीं। चारों में से एक के भी बिना विषय का ग्रहण नहीं हो सकता।" उपाध्याय विनयविजय का भी इस विषय में स्पष्ट मत मिलता है कि आभ्यन्तर निवृत्ति के सद्भाव होने पर भी उपकरणेन्द्रिय द्रव्यादि द्वारा पराघात होने से अर्थज्ञान में बाधा उत्पन्न होती है।'' इन्द्रिय आकार और अवगाहना मान
इन्द्रिय के आकारों की भिन्न-भिन्न उपमाएँ जैन ग्रन्थों में मिलती हैं, जो इस प्रकार हैकर्णेन्द्रिय- दो कदम्ब पुष्प के समान गोलाकार। चक्षुरिन्द्रिय- मसूर नामक अनाज के समाना नासिका- अतिमुक्तक पुष्प समान और काहल नामक बाजे समान। जिह्वा- क्षुर अस्त्र के समान। स्पर्शनेन्द्रिय- अनेक आकार वाली।
चक्षुइन्द्रिय की अवगाहना सबसे कम संख्यात गुणा है। उससे संख्यातगुणा अधिक प्रमाण अवगाहना श्रोत्रेन्द्रिय की, उससे घ्राणेन्द्रिय की, उससे अधिक रसनेन्द्रिय की असंख्यातगुणा और स्पर्शनेन्द्रिय की सर्वाधिक अवगाहना है।"
श्रोत्र, चक्षु और घ्राण इन्द्रिय की चौड़ाई एक अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण, जिह्वा इन्द्रिय की चौड़ाई पृथक्त्व अंगुल (दो से नौ अंगुल) प्रमाण और स्पर्शन इन्द्रिय की चौड़ाई अपने अपने शरीर प्रमाण होती है। इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण
उत्कृष्टतया श्रोत्रेन्द्रिय बारह योजन दूर से आए शब्द का श्रवण कर सकती है, चक्षुइन्द्रिय एक लाख योजन से कुछ अधिक दूर पदार्थ का स्वरूप देख सकती है, शेष इन्द्रियाँ घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन इन्द्रियाँ नौ योजन दूर से आए विषय को ग्रहण कर सकती हैं।
चक्षुइन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चारों इन्द्रियाँ जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी दूर