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जीव-विवेचन (3) भयसंज्ञा सर्वाधिक मात्रा में होती है। तिर्यंच में संज्ञा विचार- परिग्रह संज्ञा युक्त तिर्यंच सबसे कम होते हैं। इनकी अपेक्षा मैथुन संज्ञा संख्यात गुणा अधिक होती है। सजातीय और विजातीय तिर्यंचों के भय के कारण भयसंज्ञाधारक तिर्यच मैथुन संज्ञकों से संख्यात गुणा अधिक होते हैं। सर्वाधिक तिर्यच आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं। मनुष्य में संज्ञा विचार- मनुष्य में सबसे कम भयसंज्ञा, उससे संख्यातगुणा अधिक आहार संज्ञा एवं उन दोनों से संख्यात गुणा अधिक परिग्रह संज्ञा होती है। सबसे प्रभूत मात्रा में मैथुन संज्ञा पाई जाती है। देवता में संज्ञा विचार- देवताओं में आहारसंज्ञा सबसे कम होती है। इसकी अपेक्षा भयसंज्ञा संख्यातगुणा अधिक होती है और उससे भी संख्यात गुणा अधिक मैथुनसंज्ञा होती है। परिग्रह संज्ञा सबसे अधिक होती है।
___ बाईसवांद्वार : इन्द्रिय-विवेचन 'इन्दतीति इन्द्र' इन्द्र शब्द का यह व्युत्पत्तिपरक अर्थ आध्यात्मिक क्षेत्र में 'आत्मा' का द्योतक है। कहा भी है
इन्दः स्यात् परमैश्वर्ये धातोरस्य प्रयोगतः ।
इन्दनात्परमैश्वर्यादिन्द्र आत्माभिधीयते।।" आत्मा यद्यपि ज्ञ स्वभाव है तथापि कर्म के आवरण से हम स्वयं उसको जानने में असमर्थ होते हैं। उस इन्द्र (आत्मा) के अस्तित्व का ज्ञान कराने में जो लिंग निमित्त बनता है वह 'इन्द्रिय' कहलाता है।
तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपादाचार्य सर्वार्थसिद्धि में 'इन्द्रिय' शब्द के तीन लक्षण करते
१. “तदावरणक्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् ग्रहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिंगं तदिन्द्रस्य लिंगमिन्द्रियमित्युच्यते।" अर्थात् मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मा द्वारा पदार्थ को
जानने में जो लिंग होता है, वह इन्द्र (आत्मा) का लिंग इन्द्रिय है। २. 'अथवा लीनमर्थ गमयतीति लिंगम्।' अर्थात् जो लीन-गूढ़ पदार्थ का ज्ञान करवाता है उसे
लिंग कहते हैं। ३. 'अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते। तेन सृष्टमिन्द्रियमिति।' इन्द्र शब्द नामकर्म का वाची है,
अतः इन्द्र से रची गई इन्द्रिय होती है।