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जीव-विवेचन (3)
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त्पंचेन्द्रियाणां सम्यग्मिथ्यादृशां द्रष्टव्याः । क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य के आचरण का नाम धर्मसंज्ञा" है। मोहनीय के क्षयोपशम से स्वतः यह धर्म प्रभूत होता है। यह संज्ञा प्रायः सम्यग्मिथ्या दृष्टि पंचेन्द्रियों में पाई जाती है। इस संज्ञा के पश्चात् ही आत्मा का शुद्ध स्वभाव प्रकट होने में सक्षम हो पाता है और आत्मा अपने अन्तर में प्रवाहित आनन्द का उपभोग करता है।
उपर्युक्त १६ संज्ञाओं में से १५ संज्ञाएँ हेय हैं, जबकि धर्मसंज्ञा उपादेय है। मुक्ति में सहायक होने से धर्मसंज्ञा की उपादेयता है।
उपाध्याय विनयविजय संज्ञा का अर्थ ज्ञान स्वीकार करते हैं। संज्ञा का यह अर्थ उनके द्वारा मान्य संज्ञा-भेदों में भी पूर्णतः घटित होता है। विनयविजय के अनुसार संज्ञा के तीन भेद हैं- १. दीर्घकालिकी संज्ञा २. हेतुवाद संज्ञा ३. दृष्टिवाद संज्ञा।
अथवा त्रिविधाः संज्ञाः प्रथमा दीर्घकालिकी।
द्वितीया हेतुवादाख्या, दृष्टिवादाभिधा परा।।* दीर्घकालिकी संज्ञा- अतीत, अनागत एवं वर्तमान वस्तुविषयक ज्ञान दीर्घकालिकी संज्ञा कहलाती है। यथा भूतकाल में क्या किया इसका स्मरण करना, भविष्य में क्या करूँगा इसका चिन्तन करना और वर्तमान में क्या करना है, ये सभी त्रैकालिक वस्तु विषयक ज्ञान दीर्घकालिकी संज्ञा है। यह संज्ञा मनपर्याप्ति युक्त, गर्भज तिर्यच, गर्भज मनुष्य, देव और नारकियों को होती है। इस संज्ञा वाले जीवों को सभी पदार्थ स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। इस संज्ञा से रहित सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय, सम्मूर्छिम मनुष्य, विकलेन्द्रिय आदि अपेक्षाकृत असंज्ञी हैं। इनमें मनोलब्धि अल्प, अल्पतर होती है, अतः इनका ज्ञान भी अस्फुट, अस्फुटतर होता है। हेतुवाद संज्ञा- जिस ज्ञान द्वारा जीव हित में प्रवृत्त और अहित से निवृत्त होता है, वह ज्ञान हेतुवाद संज्ञा कहलाती है। कहा भी है
____तथा विचिन्त्येष्टानिष्टच्छायातपादिवस्तुषु।
द्वितीयया स्व सौख्यार्थ स्यात्प्रवृत्तिनिवृत्तिमान् ।।" जो जीव अपने देह की सुरक्षा हेतु चिन्तनपूर्वक इष्ट, अनिष्ट में प्रवृत्ति या निवृत्ति करता है, वह संज्ञी है। द्वीन्द्रिय आदि जीव वर्तमानकालीन प्रवृत्ति-निवृत्ति विषयक चिन्तन करते हैं, अतः वे संज्ञी हैं और पृथ्वी एकेन्द्रिय जीव असंज्ञी हैं। आहार आदि संज्ञा की अपेक्षा से एकेन्द्रिय जीव संज्ञी कहे जाते हैं, परन्तु उनमें ये संज्ञाएँ अव्यक्त रूप से होती हैं। दृष्टिवाद संज्ञा- जिस ज्ञान से जीव वस्तु का यथार्थ निरूपण करता है वह ज्ञान दृष्टिवाद संज्ञा