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जीव-विवेचन (2)
तैजस्, आहारक एवं केवली के भेद से सात प्रकार का है। इन वेदना आदि स्थितियों में जीव के कुछ आत्मप्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं। इसे ही समुद्घात कहा जाता है। लोकप्रकाशकार के अनुसार समुद्घात की अवस्था में जीव कालान्तर में भोगने योग्य कर्म पुदृगलों को उदीरणा करण से आकर्षित कर उन्हें पहले ही उदय में लाकर भागता है तथा भोगकर उनका क्षय कर देता है। समुद्घात की यह अवधारणा जैन दर्शन की विशेषता को इंगित करता है। लोकप्रकाश में यह भी निरूपित किया गया है कि कौनसा समुद्घात किस जीव को कितने समय तक के लिए होता है तथा किस कर्म के उदय से अथवा किस
परिस्थिति में यह समुद्घात हुआ करता है तथा उसका क्या परिणाम होता है। ६. गति और आगति के निरूपण में यह स्पष्ट किया गया है कि संसार में एक जीव एक गति
से दूसरी गति में भ्रमण करता है। जीव का मृत्यु को प्राप्त कर नरक आदि गतियों में जन्म लेने को गति तथा जहाँ से आकर जीव जन्म लेता है उसे आगति कहते हैं। गति-आगति के विवेचन से स्पष्ट होता है कि मनुष्य योनि में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन सभी गतियों से जन्म ले सकता है तथा इन सभी में जाकर उत्पन्न हो सकता है। किन्तु नरक गति का जीव पुनः नरक गति में नहीं जाता तथा वह देव भी नहीं बन सकता। इसी प्रकार देव गति का जीव भी पुनः देव गति में उत्पन्न नहीं होता और न ही नरक में जाता है। देवों और नारक का जन्म मात्र मनुष्य और तिर्यंच गति में ही होता है। जैन दर्शन का यह विधान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। तिर्यंच गति के कुछ जीव चारों गतियों में जा सकते हैं तथा कुछ जीव
दो या तीन गति में भी जाते हैं। ७. दूसरे भव में कौनसा जीव समकित प्राप्त कर सकता है तथा मोक्ष में जा सकता है। इसका निरूपण अनन्तराप्ति और समयसिद्धि द्वारों में किया गया है। पृथ्वीकायिक, अप्कायिक
और वनस्पतिकायिक जीव भी अनन्तर भव में सम्यक्त्व की प्राप्ति कर सकते हैं। सम्यक्त्व प्राप्त करके वे मोक्ष में जाने की योग्यता भी रखते हैं। इसी प्रकार विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव तथा नारक के विषय में भी कथन किया गया है। विकलेन्द्रिय जीव दूसरे जन्म में सम्यक्त्व तो प्राप्त कर सकता है किन्तु मोक्ष में नहीं जाता। तिर्यच पंचेन्द्रिय,
मनुष्य, देव और नारक जीव अनन्तर भव में समकित एवं मोक्ष दोनों प्राप्त कर सकते हैं। ८. लेश्या शब्द का प्रयोग जैन आगमों में उपलब्ध है, किन्तु वहाँ इसकी परिभाषा नहीं दी गई
है। अभयदेवसूरि के अनुसार कृष्ण आदि द्रव्य वर्गणाओं की सन्निधि से होने वाला जीव का परिणाम लेश्या है। हरिभद्रसूरि कहते हैं कि जो आत्मा को योग और कषाय प्रवृत्ति द्वारा