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जीव-विवेचन (2)
आहुः संहननं पूज्या नाराचाख्यं तृतीयकम् ।। २०५ कील और पट्ट से रहित मर्कटबन्ध से दो हड्डियों की दृढता जिस शरीर में हो वह नाराचशरीर संहनन है। सिद्धसेनगणी का मत- 'नाराचनाम्नि तु मर्कटबन्ध एव केवलो न कीलिका न पटः । नाराच नामक संहनन में केवल मर्कटबन्ध होता है न तो कीलिका होती है न पट्टा २०६ भट्ट अकलंक का मत- 'तदेवोभयवज्राकारबंधनव्यपेतमवलयबन्धनं सनाराचं नाराचसंहननं' दोनों वज्राकार के बन्धन से रहित और वलय बन्धन से हीन नाराच युक्त संहनन को नाराच संहनन कहते हैं।२०७० वीरसेनाचार्य का मत- 'जस्स कम्मस्स उदएण वज्जविसेसणरहिदणाराएण खीलियाओ हड्डसंधीओ हंवति तं णारायणसरीरसंघयणं णाम।' अर्थात् जिस कर्म के उदय से वज्रविशेषण से रहित नाराच से कीलित हड्डियों की संधियां होती है वह नाराचशरीरसंहनन नामकर्म है।०८ देवेन्द्रसूरि का मत- जिस शरीर रचना में दोनों ओर मर्कट बन्ध हो, लेकिन बैठन और कीला न हो, उसे नाराचसंहनन कहते हैं। २०६
- अतः जिस शरीर के सन्धिस्थल पर अस्थियों का संयोजन कील और वेष्टन से रहित मात्र मर्कटबन्ध से दृढ़ होता है वह नाराचशरीरसंहनन कहलाता है। अर्द्धनाराचशरीरसंहनन
___ बद्धमर्कटबन्धेन यद्भवेदेकपार्श्वतः ।
अन्यतः कीलिकानद्धमर्ध नाराचकं हि तत् ।।१० दो अस्थियाँ परस्पर एक ओर से मर्कटबन्ध से बंधी हों एवं दूसरी ओर कील से आधी बिंधी हो तो शरीर के इस संहनन को अर्द्धनाराचशरीरसंहनन कहते हैं। सिद्धसेन गणी", देवेन्द्रसूरि
और उपाध्याय विनयविजय इस संहनन के विषय में समान मत रखते हैं। वीरसेनाचार्य" नाराच से आधी बिंधी हुई हड्डियों की सन्धियों को 'अर्द्धनाराचशरीरसंहनन' कहते हैं और भट्ट अकलंक" मानते हैं कि अस्थियों के परस्पर योग में एक ओर नाराच होता है एवं दूसरी ओर नहीं होता है वह अर्द्धनाराचशरीरसंहनन है। .. - कीलिका संहनन
जिस शरीर में हड्डियाँ परस्पर केवल कील से जुड़ी होती हैं वह कीलिकाशरीर संहनन कहलाता है- 'तत्कीलिताख्यं यत्रास्थ्नां केवलं कीलिकाबलम् ।
यही मत सिद्धसेन गणी", देवेन्द्रसूरि के ग्रन्थों में मिलता है। भट्ट अकलंक" दो