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- लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन २. जो संसार (भव) की आय कराते हैं वे कषाय हैं। २२६ ३. जो कष (भव) के आय या उपादान कारण हैं वे कषाय हैं। २४०
भट्ट अकलंक (७२०-७६० ई.) के अनुसार क्रोधादि रूप कलुषता कषाय है, क्योंकि क्रोधादि परिणाम आत्मा को कुगति में ले जाते हैं और उसके स्वाभाविक रूप को कष देते हैं अर्थात् हिंसा करते हैं। वीरसेनाचार्य (विक्रम स्वीं शताब्दी) और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के अनुसार कर्मरूपी ऐसा क्षेत्र जिसमें सुख- दुःख आदि धान्य उत्पन्न होते रहते हैं और संसार जिसकी परिखा (मेड़) है, उस कर्म का जो कर्षण करते हैं वे कषाय कहलाते हैं।
उपाध्याय विनयविजय कषाय के सम्बन्ध में कहते हैं कि जिन कारणों से जीव संसार रूपी अटवी में आवागमन करता है, परिभ्रमण करता है और जन्म-मृत्यु के फेरे में पड़ता है वे कषाय (कष+आय) हैं। अतः जीव जिन कारणों से आत्मा को कलुषित कर भव का बन्धन करता है वे कषाय हैं। कषाय भेद
मुख्य रूप से कषाय और नोकषाय भेद से कषाय दो प्रकार का है। नोकषाय में 'नो' पद . 'किंचित्' अर्थ का द्योतक है। हास्यादि भेद से नोकषाय नौ प्रकार का और क्रोधादि भेद से कषाय चार प्रकार का है।" ये चारों कषाय आत्मस्वरूप का किस स्तर तक आच्छादन करते हैं उस अपेक्षा से ये क्रोधादि अनन्तानुबंधी आदि चार-चार अवस्थाओं वाले हैं। इन चार-चार अवस्थाओं के कषाय के सोलह प्रकार हैं। नव नोकषाय को मिलाकर कषाय पच्चीस प्रकार के होते हैं।
कषाय
कषाय
नोकषाय
क्रोध
मान
भाया
लोभ
अनन्तानुबन्धी क्रोध अनन्तानुबन्धी मान अनन्तानुबन्धी माया अनन्तानबन्धी लोभ अप्रत्याख्यानी क्रोध अप्रत्याख्यानी मान अप्रत्याख्यानी माया अप्रत्याख्यानी लोभ प्रत्याख्यानी क्रोध प्रत्याख्यानी मान प्रत्याख्यानी माया प्रत्याख्यानी लोभ संज्वलन क्रोध संज्वलन मान संज्वलन माया संज्वलन लोभ
हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुषवेद नपुंसकवेद