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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन इसलिए व्यक्ति के आभामण्डल में उभरने वाले रंगों को देखकर भावों को जानते हैं। लेश्या सम्प्रत्यय अन्तःकरण की सही सूचना का मानक है। इसी दृष्टि से जैनाचार्यों ने लेश्या अथवा आभामण्डल के लिए ध्यान का उपक्रम प्रस्तुत किया है।
विचारों की शुद्धि, भावों की शुद्धि से लेश्या की शुद्धि भी निश्चित हो जाती है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान में प्रशस्त विचार प्रवाह चलता है। जिससे धर्मध्यानी में तेज, पद्म एवं शुक्ललेश्या जागती है। शुक्लध्यानी में प्रथम दो चरणों में शुक्ललेश्या, तीसरे चरण में परम शुक्ललेश्या और चतुर्थचरण में लेश्या का अभाव हो जाता है। इसलिए जैनाचार्यों ने लेश्या के लिए ध्यान का मार्ग बताया है।
अठारहवां द्वार : दिगाहार निरूपण जीव द्वारा भिन्न-भिन्न दिशा से पुद्गलों का आहार ग्रहण करना 'दिगाहार' कहलाता है। जीव पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधो इन छह दिशाओं से आहार लेते हैं। व्याघात होने पर तीन या चार या पाँच दिशा से आहार करते हैं।
निर्व्याघातं प्रतीत्य स्यादाहारः षड्दिगुद्भवः ।
व्याघाते त्वेष जीवानां त्रिचतुष्पंचदिग्भवः ।। व्याघात से तात्पर्य अलोकाकाश के कारण पुद्गलाहार का अभाव होना है। कोई जीव तीन या चार या पाँच दिशा से आहार कैसे प्राप्त करता है इसका स्पष्ट उल्लेख 'लोकप्रकाश' ग्रन्थ के तृतीय सर्ग में मिलता है। तीन दिशाओं से दिगाहार- यदि कोई एकेन्द्रिय जीव नीचे अधोलोक के निष्कूट भाग के आग्नेय कोण (पूर्व और दक्षिण दिशा का मध्य भाग) में चरमान्त पर स्थित हो तो वह तीन दिशाओं- पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा और ऊर्ध्व दिशा से निर्व्याघात रूप से पुद्गलों को ग्रहण करते हैं क्योंकि पूर्व दिशा, दक्षिण दिशा और अधः दिशा में अलोक स्थित है। ....
सर्वाधस्तादधोलोक निष्कूटस्याग्निकोणके। स्थितो भवेद्यदैकाक्षस्तदासौ त्रिदिगुद्भवः । पूर्वस्यां च दक्षिणस्यामधस्तादिति दिक् त्रये।
संस्थितत्त्वादलोकस्य ततो नाहारसम्भवः ।। निष्कूट के चरमान्त में स्थित एकेन्द्रिय जीव पूर्वोक्त दिशाओं से सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर वायुकाय पुद्गलों का आहार लेते हैं।"
'अधोलोक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर वायुकाय जीवों का ही अस्तित्व है' उपाध्याय