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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन परदोषदृष्टि न रखना, परनिन्दा न करना, पापकर्म में औदासीन्य भाव, समभाव, श्रेयमार्ग में रुचि रखना आदि रूप में प्रकट होते हैं।" जीवों में लेश्याओं का विभाजन
सूक्ष्म एकेन्द्रिय", तेजस्काय"", वायुकाय", विकलेन्द्रिय", सम्मूर्छिम तिर्यंच-पंचेन्द्रिय, सम्मूर्छिम-मनुष्य" और नारकी जीवों में कृष्ण, नील और कापोत तीन लेश्याएँ होती हैं। बादर पृथ्वीकाय-अप्काय", भवनपति", वाणव्यन्तर जीवों में तेजोलेश्या को मिलाकर कुल चार लेश्याएँ होती हैं। प्रत्येक-शरीर-बादरवनस्पतिकाय जीवों में प्रथम चार लेश्याएँ होती हैं तथा साधारण-शरीर-बादर वनस्पतिकाय जीवों में कापोत तक तीन लेश्याएँ होती हैं। देवगति से वनस्पतिकाय में आने वाले जीव में प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक तेजोलेश्या भी होती है, इसीलिए वनस्पतिकाय में चार लेश्याओं की सत्ता स्वीकार की जाती है
तेजोलेश्यावतां येषु नाकिनां गतिसंभवः ।
आद्यमन्तर्मुहूर्त स्यात्तेजोलेश्यापि तेषु वै।।६२ ज्योतिषी, सौधर्म एवं ईशान देवों में तेजोलेश्या है। सनत्कुमार, माहेन्द्र एवं ब्रह्मदेवलोक में पद्मलेश्या तथा ऊपरवर्ती देवलोक में शुक्ल लेश्या है।६२ गर्भज-तिर्यंच पंचेन्द्रिय और गर्भजमनुष्य में छहों लेश्याएँ होती हैं।
देवों में रहने वाली तेजो, पद्म एवं शुक्ल लेश्याएँ और नारकी जीवों की कृष्ण, नील एवं कापोत लेश्याएँ भवान्त तक अवस्थित रहती हैं। कहा भी है
'देवनारकयोर्लेश्या आभवान्तभवस्थिताः।"६६ भावलेश्या के सद्भाव से कुछ आचार्य इनमें छहों लेश्याएँ स्वीकार करते हैं, यथा
अतएव भावपरावृत्त्या नारकनाकिनोः ।
भवन्ति लेश्याः षड्पि तदुक्तं पूर्वसूरिभिः ।। ___ तिथंच और मनुष्य की लेश्या उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक स्थित रहती है, तत्पश्चात् परिवर्तित हो जाती है। अतः द्रव्य और भाव से इनमें षड् लेश्याएँ होती हैं।
जीवों में लेश्याओं का स्वामित्व क्र. जीव
| लेश्याएँ | सूक्ष्म-एकेन्द्रिय
कृष्ण, नील, कापोत तीन लेश्याएँ। | बादर पृथ्वीकाय, अप्काय
प्रथम चार लेश्याएँ। | बादर तेजस्काय, वायुकाय एवं साधारण शरीर | प्रथम तीन लेश्याएँ बादर वनस्पतिकाय
१ सभास