________________
132
लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन उपाध्याय विनयविजय भी इसी मत को अंगीकार करते हैं
द्रव्याण्येतानि योगान्तर्गतानीति विचिन्त्याम् ।
संयोगत्वेन लेश्यानामन्वयव्यतिरेकतः ।। लेश्या के बिना कर्म-पुद्गलों का आत्मप्रदेशों से संयोग नहीं होता, इनका कर्म संयोग में अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है, अतः लेश्या भी द्रव्य है, जिनका समावेश योग वर्गणा में होता है।
____ कषायानुरंजिता कायवाङ्मनोयोगप्रवृत्तिः लेश्या।। भट्ट अकलंक के इस लक्षण से भी स्पष्ट है कि लेश्या योगप्रवृत्ति का नाम है, योग का
नहीं।
योग और लेश्या का वास्तविक अन्तर तो अतीन्द्रिय ज्ञानी ही बता सकते हैं। लेश्या के प्रकारः द्रव्य लेश्या एवं भाव लेश्या
लेश्या हमारे व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब है। जैसे प्रतिबिम्ब में हमारे बाह्य व्यक्तित्व की छवियाँ दिखाई देती हैं, वैसे ही लेश्या में हमारा बाह्य और अन्तरंग दोनों प्रकार का व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित होता है। इसी आधार पर लेश्या के दो प्रकार किए गए हैं- द्रव्यलेश्या और भावलेश्या। तेज, दीप्ति, ज्योति, किरण, आभामण्डल आदि शब्द द्रव्यलेश्या का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा अन्तःकरण, अध्यवसाय, आत्मपरिणाम आदि शब्द भाव लेश्या के सूचक हैं।" द्रव्यलेश्या और भावलेश्या के स्वरूप को निम्नांकित बिन्दुओं से समझा जा सकता है१. द्रव्यलेश्या एक पौद्गलिक पदार्थ है इसलिए पुद्गल के सभी गुण उसमें विद्यमान हैं।
द्रव्यलेश्या में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श होते हैं। भावलेश्या अपौद्गलिक
होने से वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से विरहित है। २. जैनदर्शन में लेश्या के भार पर भी विचार किया गया है। द्रव्य लेश्या न एकान्ततः भारी
होती है और न हल्की, अतः वह गुरुलघु रूप होती है।" जबकि भावलेश्या अरूपी है अतः
सर्वथा भारमुक्त है, इसलिए वह अगुरुलघु है। ३. द्रव्यलेश्या का विस्तार क्षेत्र की दृष्टि से लोकप्रमाण है, काल की अपेक्षा शाश्वत है और
भाव की दृष्टि से वह कभी वर्ण, गंध आदि से वियुक्त नहीं होती। ४. द्रव्यलेश्या में निरन्तर पुद्गलों का आदान-प्रदान होता रहता है। एक ही द्रव्यलेश्या के
पुद्गल संहति में तारतम्य चलता रहता है। ५. द्रव्यलेश्या के असंख्य स्थान हैं। वे स्थान पुद्गलों की विशुद्धता-अविशुद्धता,
मनोज्ञता-अमनोज्ञता, शीतता-उष्णता आदि के हीनाधिक्य की अपेक्षा से हैं। द्रव्यलेश्या के