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जीव-विवेचन (2) तीन मत हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं- १. कर्मवर्गणा निष्पन्न लेश्या २. कर्मनिष्यन्द लेश्या ३. योगपरिणाम लेश्या। कर्मवर्गणा निष्पन्न लेश्या
उत्तराध्ययन के टीकाकार शांतिसूरि का मत है कि लेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है। लेश्या कर्म रूप होते हुए भी उससे पृथक् है, क्योंकि दोनों स्वरूपतः भिन्न-भिन्न हैं।
उपर्युक्त अभिमत के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जीव जब तक कार्मण वर्गणाओं का आकर्षण करता है तब तक ही लेश्या का अस्तित्व रहता है। उसके पश्चात् जीव अलेश्य हो जाता है। कर्मनिष्यन्द लेश्या
__ लेश्या कर्म का निष्यन्द या निर्झर रूप है। जैसे निर्झर नित नए-नए रूप में प्रवाहित होता रहता है, वैसे ही लेश्याप्रवाह एक जीव के साथ अपने असंख्य रूप दिखलाता है। निष्यन्द रूप का तात्पर्य बहते हुए कर्मप्रवाह से है। १४वें गुणस्थान में कर्मसत्ता है, प्रवाह है, पर वहाँ लेश्या का अभाव है, क्योंकि वहाँ नए कर्मों का आगमन नहीं होता।
इस मत में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यह लेश्या कौनसे कर्म का निष्यन्द है घाती कमों का अथवा अघाती कर्मों का? और यदि आठों कर्मों का निष्यन्द लेश्या है तो चार घाती कमों को नष्ट करने वाले सयोगी केवलियों को भी लेश्या के सद्भाव का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। लेश्या, कषाय और योग दोनों के साथ कार्य करती है। जब कषाय की उपस्थिति में लेश्या कार्य करती है तो कर्म का बंधन प्रगाढ़ होता है और जब वह मात्र योग के साथ सक्रिय होती है तो स्थिति और अनुभाग की दृष्टि से कर्म का बंधन नाममात्र का होता है। १३वें गुणस्थानवर्ती सयोगी केवलियों के मात्र दो समय की स्थिति वाली ईर्यापथिक क्रिया का ही बन्ध होता है। अतः सयोगी केवलियों के भी लेश्या स्वीकार नहीं की जाती है। योग परिणाम लेश्या
इस मत के मुख्य प्रवर्तक आचार्य हरिभद्रसूरि आचार्य मलयगिरि एवं उपाध्याय विनयविजय हैं। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना सूत्र के लेश्या पद की प्रस्तावना में इस विषय पर पर्याप्त विवेचन किया है। लेश्या और योग में अविनाभावी सम्बन्ध है। जहाँ योग का विच्छेद होता है वहीं लेश्या परिसम्पन्न होती है। ऐसा होने पर भी लेश्या योगवर्गणा के अन्तर्गत नहीं है। वह एक स्वतंत्र द्रव्य है। कर्म के उदय और क्षयोपशम से जैसे हमारे योगों में परिवर्तन आता है, वैसे ही लेश्या भी सतत परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरती रहती है।