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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन
आनत देवलोक से लेकर अच्युत अधोलोक में अधोग्राम पर्यन्त, तिरछे लोक में मनुष्य क्षेत्र देवलोक के देव | तक और ऊर्ध्वलोक में अच्युत देवलोक पर्यन्त ।
ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के
अधोलोक में अधोग्राम तक, ऊर्ध्वलोक में स्व स्थान पर्यन्त और तिरछेलोक में मनुष्य क्षेत्र तक
देव
तैजस शरीर और कार्मण शरीर का अविनाभावी सम्बन्ध है । अतः तैजस एवं कार्मण शरीर की अवगाहना समान ही होती है।
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(13) स्थितिकृत भेद - कौनसा शरीर कितनी अवधि तक रह सकता है, यह उसक कहलाती है। स्थिति के अनुसार सबसे अल्पावधि वाला शरीर आहारक शरीर है जो जघन्य और उत्कृष्ट रूप में अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही रहता है। "" औदारिक शरीर की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और
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उत्कृष्ट तीन पल्योपम है।" वैक्रिय शरीर की स्थिति में मतभेद है। जीवाजीवाभिगम सूत्र के अनुसार कृत्रिम वैक्रिय शरीर की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट काल नारकियों में अन्तर्मुहूर्त का, तिर्यंच एवं मनुष्य में चार अन्तर्मुहूर्त का और देवों में अर्धमास का होता है। जबकि भगवतीसूत्र * में वायुकाय, संज्ञितिर्यंच और मनुष्य की कृत्रिम वैक्रिय स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त की निरुपित है। लोकप्रकाशकार ̈` वैक्रिय शरीर की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम होने का उल्लेख करते हैं। २७३ तैजस और कार्मण शरीर की स्थिति भव्य और अभव्य जीवों के अनुसार क्रमशः सान्त और अनादि - अनन्त है।
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(14) अन्तरकाल कृत भेद - एक बार एक शरीर प्राप्त होने के बाद पुनः वैसा ही शरीर प्राप्त होने के मध्य व्यतीत काल को उस शरीर का अन्तरकाल कहा जाता है । २५ औदारिक शरीर का जघन्य अन्तरकाल एक अन्तर्मुहूर्त व उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक तैंतीस सागरोपम होता है। जघन्य काल पृथ्वीकाय आदि जीवों की अपेक्षा से है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल नरक एवं देवगति के मध्य व्यतीत काल की अपेक्षा से है। वैक्रिय शरीर का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट काल वनस्पतिकाय के काल के समान है । आहारक शरीर का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन के समान है । तैजस और कार्मण शरीर या तो अनादि अनन्त होते हैं या अनादि सान्त, किन्तु ये दोनों ही बिना अन्तरकाल के होते हैं। सिद्धावस्था में जीव से इनका विच्छेद हो जाता है।
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(15) अल्पबहुत्व कृत भेद - आहारक शरीर धारण करने वाले जीव सबसे अल्प हैं। उनसे असंख्यात गुणा वैक्रिय-शरीरी हैं, क्योंकि वैक्रिय शरीर धारण करने वाले नारकी, देव और मनुष्य जीव असंख्य हैं। साधारण वनस्पति के प्रत्येक अंग में जीव अनन्त हैं, परन्तु शरीर असंख्यात ही