________________
98
लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन आकार अकथनीय है।"
विकलेन्द्रिय", सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय" और सम्मूर्छिम मनुष्य" के मात्र हुण्डक संस्थान है। गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय के सर्व संस्थान होते हैं।” संख्यात आयुष्य वाले मनुष्य के सर्व और असंख्यात आयुष्य वाले मनुष्य के मात्र समचतुरन संस्थान होता है।" देवों के सुन्दर रम्य समचौरस एवं नारक जीवों के हुण्डक संस्थान होता है।
___लोकप्रकाशकार ने सत्-असत् और शुभ-अशुभ लक्षणों से युक्त आकृति रूप संस्थान की लाक्षणिक परिभाषा करते हुए संस्थानों के भेदों का अन्य ग्रन्थों में मिलने वाले संज्ञा शब्द सहित उल्लेख किया है।
समीक्षण १. द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के आधार पर लोक का निरूपण करना जैन दर्शन का अपना
वैशिष्ट्य है। साधारणतः लोक में एवं अन्य दर्शनों में भी द्रव्यलोक को ही लोक माना जाता है। किन्तु जैन दर्शन में क्षेत्र, काल एवं भाव की दृष्टि से भी लोक का निरूपण हुआ है। हरिभद्रसूरि के लोक तत्त्व निर्णय ग्रन्थ में द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक का कथन होने के पश्चात् उपाध्याय विनयविजय का महान् योगदान रहा कि उन्होंने लोकप्रकाश ग्रन्थ के ३७ सों में इन चारों लोकों का विस्तार से विवेचन किया है जिसमें
प्रायः समग्र जैन दर्शन समाहित हो गया है। २. द्रव्यलोक से आशय जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन षड् द्रव्यों का समूह है। लोक का विस्तार क्षेत्रलोक है। समय, आवलिका आदि का व्यवहार तथा भूत, भविष्य
और वर्तमान में लोक की अवस्थिति काललोक है। षद्रव्यों के अनन्त पर्याय रूप भावों को ही भावलोक कहा गया है। ३. द्रव्यलोक के अन्तर्गत षड्द्रव्यों का विवेचन भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण इन पाँच
अपेक्षाओं से किया गया है। धर्मास्तिकाय जीव एवं पुद्गल की गति में निमित्त बनता है, अधर्मास्तिकाय स्थिति में निमित्त बनता है, आकाशास्तिकाय सभी द्रव्यों को स्थान देता है, काल से सभी द्रव्यों का परिणमन होता है, पुद्गल में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं तथा
जीव ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग से मुक्त होता है। ४. उपाध्याय विनयविजय ने जीवद्रव्य का जितना विस्तार से वर्णन किया है उतना अन्य द्रव्यों
का नहीं। धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों का आवश्यक विवेचन तो किया ही है, पुद्गल द्रव्य पर भी विशेष प्रकाश डाला है। कालद्रव्य का काललोक में अधिक विवेचन किया है। आकाश