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जीव-विवेचन (2)
127 छोड़कर शेष तिर्यंचों से, कर्मभूमिज मनुष्यों से और सहस्रार तक के देवलोकों से आकर उत्पन्न होते हैं। अतः ये जीव चारों गतियों में जाने वाले और चारों आगति वाले हैं। मनुष्य- सम्मूर्छिम मनुष्य दो गति वाले और दो आगति (तिर्यक् और मनुष्य) वाले हैं। गर्भज मनुष्य सातवीं नरक को छोड़ शेष सभी नरकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्षायु को छोड़कर शेष सभी तिर्यंचों से भी उत्पन्न होते हैं। कर्मभूमिज मनुष्यों और सभी देवों से आकर भी उत्पन्न होते हैं। ये जीव मृत्यु बाद नैरयिकों में यावत् अनुत्तरौपपातिक देवों में भी उत्पन्न होते हैं और कोई सिद्ध होते हैं। इस प्रकार गर्भज मनुष्य जीव पाँच गति वाले और चार आगति वाले हैं। देव- देव च्यवन कर नरक और देवों में उत्पन्न नहीं होते। यथासम्भव तिर्यंच एवं मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तथा इन्हीं से आते हैं। अतः वे दो गति वाले और दो आगति वाले हैं।६० नारक- नारकी जीव मरकर तिर्यच और मनुष्यों में ही जाते हैं। अतः दो गति वाले हैं और तिर्यच तथा मनुष्यों से ही आकर उत्पन्न होते हैं इसलिए दो आगति वाले हैं।"
उपाध्याय विनयविजय ने आगम सूत्रों को उद्धृत करते हुए जीवों की गति-आगति का स्पष्ट एवं प्रामाणिक उल्लेख किया है।
पन्द्रहवां एवं सोलहवां द्वार : अनन्तराप्ति और समयसिद्धि निरूपण
अनन्तराप्ति अर्थात् अनन्तर (अन्तर रहित) जन्म में प्राप्त करना। इसका आशय है कि विवक्षित जन्म (वर्तमान कालीन जन्म) में प्राप्त स्व-शरीर को छोड़कर (मृत्यु प्राप्त कर) अन्तर रहित दूसरे ही जन्म में प्राणी समकित को प्राप्त करता है वह 'अनन्तराप्ति' कहलाता है। लोकप्रकाशकार के अनुसार इसका लक्षण इस प्रकार है
विवक्षितभवान्मृत्वोत्पद्य चानन्तरे भवे ।
यत्सम्यक्त्वाद्यश्रुतेंऽगी सानन्तराप्तिरुच्यते ।। समकित आदि साधनों को प्राप्त कर योग्यता धारक जीव एक समय में जितने सिद्ध होते हैं वह 'एक समय सिद्ध' है
लब्ध्वा नृत्वादि सामग्री यावन्तोऽधिकृतांगिनः ।
सिद्धयन्त्येकक्षणे सैकसमये सिद्धिरुच्यते।।" अनन्तराप्ति के अधिकारी और समयसिद होने वाले जीव (1) सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय जीव- पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव मृत्यु के बाद अनन्तर भव में तिर्यच पंचेन्द्रिय जन्म प्राप्त करता है तब वह देशविरति सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है और यदि गर्भज रूप प्राप्त करता है तब क्रमशः देशविरति, सर्वविरति और मोक्ष भी