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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन तेरहवां एवं चौदहवां द्वार : गति-आगति निरूपण जीव मर कर जहाँ जाता है वह गति और जहाँ से आकर उत्पन्न होता है वह आगति है। गति शब्द 'गम्' धातु से निष्पन्न है। यह धातु गमन, क्रिया तथा अवस्था (दशा) अर्थ की बोधक है। जैन आचार्यों ने 'गम्' धातु के भिन्न-भिन्न अर्थों को लेकर गति को परिभाषित किया है। पंचसंग्रहकार के अनुसार निश्चय से गति क्रिया का नाम है और व्यवहार से चारों गतियों में गमन का नाम गति है। धवलाटीककार के अनुसार जो प्राप्त की जाए वह गति है।" गति के भेद
गति भेद के विषय में विद्वानों का सूक्ष्म मतवैभिन्य है। भट्ट अकलंक गति के दो भेद कर्मोदयकृत और क्षायिकी करते हैं। कर्मोदयकृत गति चार नरक, तिथंच, मनुष्य और देव है और क्षायिकी गति मोक्षगति है। कर्म-सिद्धान्त की दृष्टि से चार गतियाँ प्रसिद्ध हैं। जब तक जीव कों से आबद्ध है वह इन चार गतियों में गमनागमन करता रहता है और जब कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है तो वह सिद्ध गति को प्राप्त हो जाता है। इसी अपेक्षा से स्थानांग सूत्र में गति के पाँच भेद मिलते हैं- नरक गति, तिथंच गति, मनुष्य गति, देवगति और सिद्धगति। स्थानांग सूत्र के दसवें अध्ययन में विग्रह शब्द की अपेक्षा से गति के दस भेद किए हैं।" विग्रह शब्द के दो अर्थ हैं- शरीर और मोड़ (वक्रता)। नरक आदि स्थानों को प्राप्त करते समय जब ऋजु (अनुश्रेणि) गति होती है तो उसे नरक गति, तिथंच गति आदि कहते हैं तथा जब वह गति वक्र अर्थात् एक से अधिक मोड़ वाली होती है तो उसे नरकविग्रहगति, तिर्यचविग्रहगति आदि नामों से अभिहित करते हैं।
स्थानांग सूत्र में जीवों की गति-आगति के छह, सात, आठ और नौ भेदों का भी उल्लेख मिलता है। छह भेद- संसारसमापन्नक जीव छह प्रकार के हैं :- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाया
सात और आठ भेद योनिसंग्रह के आधार पर किए हैं अर्थात् जिस योनि से जीव उत्पन्न होता है वह गति-आगति के भेद होंगे। सात भेद- सत्तविधे जोणिसंग्गहे पण्णत्ते- तं जहा- अंडजा, पोतजा, जराउजा, रसजा, संसेयगा, संमुच्छिमा, उब्भिगा। अर्थात् योनि संग्रह सात प्रकार के हैं- अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्छिम और उद्भिज्जा आठ भेद-उपर्युक्त सात भेदों के साथ औपपातिक योनि संग्रह को मिलाकर आठ भेद किए हैं।"