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जीव-विवेचन (2)
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युक्त जीव अपने आत्मप्रदेशों से मुखादि रिक्त विभागों को पूरित करता है और लम्बाई तथा चौड़ाई में शरीर प्रमाण क्षेत्र में व्याप्त कर कषाय मोहनीय कर्म के बहुत से अंशों को क्षय करता है वह कषाय समुद्घात कहा जाता है। यह क्रोध, मान, माया और लोभ रूप हेतुओं से चार प्रकार का होता है। " (3) मारणान्तिक समुद्घात - अन्तर्मुहूर्त शेष आयुष्य वाले जीव के द्वारा मुखादि छिद्र विभागों को और लम्बाई-चौड़ाई में शरीर प्रमाण क्षेत्र को आत्मप्रदेशों से पूर्ण करना मारणान्तिक समुद्घात कहलाता है।” इस समुद्घात में जीव स्वशरीर के अतिरिक्त जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तक और उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक एक दिशा में अन्तिम उत्पत्ति स्थान तक कर्मपुद्गलों को व्याप्त करके भी क्षय करता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार कोई-कोई जीव मारणान्तिक समुद्घात से निवृत्त होकर पुनः उसी शरीर में भी उत्पन्न हो सकता है। "
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(4) वैक्रिय समुद्घात- वैक्रिय समुद्घात वैक्रियशरीरनाम कर्माश्रित है। वैक्रिय शक्ति वाला जीव आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर मोटाई, चौड़ाई में अपने शरीर के अनुसार तथा लम्बाई में संख्यात योजन समान दंडाकार बनाकर वैक्रियशरीरनामकर्म के पुद्गलों को शान्त करता है, इसी को वैक्रिय समुद्घात की संज्ञा से पुकारते हैं। "
(5) तैजस समुद्घात- तेजोलेश्या शक्ति से युक्त जीव तेजोलेश्या फैंकते समय अपने आत्प्रदेशों को बाहर शरीर के अनुसार मोटा, चौड़ा और संख्यात योजन लम्बा दंडाकार करके पूर्वबद्ध तैजस अंशों को समाप्त करता है एवं योग्य अंशों को लेकर तेजोलेश्या छोड़ता है वह तैजस समुद्घात कहलाता है। "
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(6) आहारक समुद्घात - चौदह पूर्वधारी मुनि किसी हेतु से आत्मप्रदेशों द्वारा शरीर प्रमाण मोटा, चौड़ा और संख्यात योजन लम्बा दण्डवत् करके आहारक पुद्गलों को फैलाकर एवं योग्य पुद्गलों का ग्रहण करके आहारक शरीर का सृजन करते हैं और आहारक शरीर नामकर्म के पुद्गलों का परिशाटन (फैलाव) करते हैं, उसे आहारक समुद्घात कहते हैं। "
(7) केवलि समुद्घात - जिन सर्वज्ञ केवलज्ञानी की वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म बन्ध की स्थिति आयुष्य कर्म से अधिक रहती है वे अन्तर्मुहूर्त शेष आयुष्य रहने पर केवलीसमुद्घात करते हैं। यह समुद्घात मात्र आठ समय में पूर्ण हो जाता है। * प्रथम समय वे केवली भगवन्त आत्मप्रदेश द्वारा स्व शरीर के अनुसार मोटे, चौड़े, ऊँचे, नीचे एवं लोकान्त को स्पर्श करने वाले दण्ड का सर्जन करते हैं। दूसरे समय में दण्ड को पूर्व-पश्चिम लम्बे कपाट के आकार का बनाते हैं। तीसरे समय में उत्तर-दक्षिण दिशा में लम्बे विस्तार को मथानी रूप में निर्मित करते हैं और चौथे समय में सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं, अवकाश के अन्तरों को भर लेते हैं। उस समय आत्मा का विराट् स्वरूप