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लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1)
होने से औदारिक शरीरी भी वैक्रिय से असंख्यात गुणा अधिक हैं । औदारिक से अनन्त गुना अधिक
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तैजस और कार्मण शरीर वाले होते हैं।
शरीरों का स्वामित्व
एक जीव को कितने शरीरों का स्वामित्व होता है इसका वर्णन लोकप्रकाश में उपाध्याय विनयविजय ने किया है। पृथ्वीकायादि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों को तैजस, कार्मण और औदारिक शरीर होता है। अनन्त निगोदों का सर्व साधारण एक औदारिक शरीर है, उनमें तैजस एवं कार्मण शरीर
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पृथक्-पृथक् होते हैं। वायुकाय को छोड़कर बादर एकेन्द्रिय भी इन्हीं तीन शरीरों के अधिकारी होते हैं। वायुका पूर्वोक्त शरीर के साथ वैक्रिय शरीर का भी स्वामित्व रखता है । २७९ विकलेन्द्रिय के तीन शरीर औदारिक, तैजस और कार्मण हैं। सम्मूर्च्छिम मनुष्य के प्रथम तीन शरीर होते हैं। सम्मूर्च्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय और युगलिकों में विकलेन्द्रिय के समान तीन शरीर होते हैं। संख्यात आयुष्य वाले मनुष्य में पांच शरीर होते हैं। असंख्यात आयुष्य वाले मनुष्यों को आहारक और वैक्रिय 'शरीर नहीं होते, केवल तीन शरीर होते हैं। " देव और नारक तैजस, कार्मण और वैक्रिय तीन देहों के स्वामी होते हैं।
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निरन्तर क्षरण होने वाला पुद्गलों का स्कन्ध 'शरीर' औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण भेद से पाँच प्रकार का है। शरीर के ये पाँच भेद जैनेतर दर्शनों से जैन दर्शन का वैशिष्ट्य प्रतिपादित करते हैं। उपाध्याय विनयविजय ने तत्त्वार्थ सूत्र, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार, पंचास्तिकाय, षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में उपलब्ध पाँचों शरीर के प्रभेदों को एक साथ उद्धृत कुछ और नए चतुर्गतिकृत, स्थानकृत और प्रयोजनकृत प्रभेदों का भी उल्लेख किया है।
दसवां द्वार : संस्थान-निरूपण
शरीरनामकर्म से प्राप्त शरीर के संस्थानों / आकारों का उल्लेख विनयविजय ने दसवें 'संस्थान' द्वार के अन्तर्गत किया है।
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'संतिष्ठते, संस्थीयतेऽनेन इति, संस्थितिर्वा संस्थानम् भट्ट अकलंक के अनुसार सम्यक् स्थिति संस्थान कहलाती है। 'संस्थान का अर्थ आकृति है, ऐसा पूज्यपादाचार्य स्वीकार करते हैं। जिस कर्मोदय से औदारिकादि शरीरों की भिन्न-भिन्न आकृति बनती है वह संस्थान है। कषायपाहुड में त्रिकोण, चतुष्कोण और गोल आदि आकार को संस्थान की संज्ञा दी गई है। लोकप्रकाशकार ने संस्थान को एक लाक्षणिक परिभाषा दी है
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सदसल्लक्षणोपेतप्रतीकसन्निवेशजम्। शुभाशुभाकाररूपं षोढा संस्थानमंगिनाम् ।। २७