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लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1)
91 आविर्भाव का निमित्त होता है और जो अनित्य है।२२६ (1) औदारिक शरीर- 'उदारैः पुद्गलैर्जातं औदारिकं भवेत् अर्थात् उदार पुद्गलों से बना शरीर औदारिक शरीर कहलाता है। उदार शब्द से प्रयोजन रूप अर्थ में ठक् प्रत्यय से औदारिक शब्द-'उदार+ठक्'-उदारे भवम् औदारिकम्- बनता है।" (2) वैक्रिय शरीर- शरीर के स्वाभाविक आकार के अतिरिक्त विभिन्न आकार बनाना विक्रिया कहलाता है और यह विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन बनता है वह वैक्रिय शरीर कहलाता है। पूज्यपादाचार्य के अनुसार शुभ या अशुभ अनेक प्रकार की अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियों से युक्त शरीर द्वारा आत्मा के प्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है वह विक्रिया है। यह विक्रिया करने वाला शरीर वैक्रिय शरीर होता है।२५३ (3) आहारक शरीर- आहारक ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त मुनि असंयम के परिहार और संदेह के निवारण रूपी प्रयोजनवश आहारकशरीर नामकर्म के उदय से जिस शरीर की रचना करता है वह आहारक शरीर कहलाता है। यह आहारक शरीर रसादिक धातु, संहननों से रहित, समचतुरस्र संस्थान से युक्त, आकाश व स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ निर्मल, अनुत्तरविमान के देवों से भी अधिक कान्ति वाला, शुभनामकर्मोदय से शुभ अवयवों से युक्त होता है। यह एक हस्तप्रमाण वाला उत्तमांग शिर में से उत्पन्न होता है। (4) तैजस शरीर- तैजस् नामकर्म के उदय से तेजस् अर्थात् उष्णता से होने वाला शरीर तैजस शरीर कहलाता है- 'तेजसि भवं तैजसम्' यह शरीर संसारी जीव का अनुगामी होता है। आहार पचाने में भी यह समर्थ होता है।" तैजस शरीर प्राप्त जीव ही विशिष्ट तप से तेजोलेश्या और शीतलेश्या की लब्धि प्राप्त कर सकता है। यदि जीव प्रसन्न और तुष्टमान हो तो वह शीतलेश्या से अन्य जीव का अनुग्रह कर देता है और यदि रोष युक्त हो तो जीव का तेजोलेश्या से निग्रह कर देता
(5) कार्मण शरीर-क्षीर-नीरवत् जीव प्रदेशों के साथ में मिले हुए कर्म प्रदेशों का पुद्गल स्कन्ध कार्मण शरीर होता है, जो कार्मण नामकर्म के उदय से होता है। कार्मण और तैजस शरीर मिलकर जीव को जन्मान्तर में जाने के लिए सहायक बनते हैं।"
उपाध्याय विनयविजय ने तत्त्वार्थ सूत्र, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार, पंचास्तिकाय, षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में उपलब्ध पाँचों शरीरों के विशेष अन्तर को एक साथ उद्धृत कर कुछ नवीन प्रभेदों का भी उल्लेख किया है। वे इस प्रकार हैं