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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन मनुष्य- सम्मूर्छिम मनुष्य की भवस्थिति और कायस्थिति दोनों जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अन्तर्मुहूर्त ही होती है। गर्भज मनुष्यों में युगलिकों की उत्कृष्ट भवस्थिति तीन पल्योपम और शेष मनुष्यों की करोड़ पूर्व है। गर्भज मनुष्य के गर्भ की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त एवं..... उत्कृष्ट बारह वर्ष होती है। गर्भज मनुष्य की कायस्थिति गर्भज तिर्यंच के समान होती है।२२२ देव और नारक- देव और नारक मरकर पुनः देव और नारक नहीं बनते हैं अतः उनकी कायस्थिति नहीं होती है। मात्र भवस्थिति ही होती है। देवों और नारकों की उत्कृष्ट भवस्थिति तैंतीस सागरोपम और जघन्य दस हजार वर्ष है। त्रस रूप में नारकों की कायस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षतः दो हजार सागरोपम है। २५
नरक, देव, मनुष्य और तिर्यंच- इन चार गतियों में भवस्थिति और कायस्थिति का निरूपण सुव्यवस्थित एवं स्पष्ट रूप से लोकप्रकाश में प्राप्त होता है। कायस्थिति का वर्णन व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के आधार पर किया गया है। देव एवं नारक की कायस्थिति नहीं है और भवस्थिति भी निरुपक्रम होने से निश्चित है। असंख्यात वर्ष वाले मनुष्य और तिरेसठ शलाका पुरुष की आयु निरुपक्रम है, शेष मनुष्यों की सोपक्रम है तथा कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है। तिर्यच के एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक में भवस्थिति और कायस्थिति अनेक प्रकार की है।
नौवां द्वार : शरीर विवेचन (देह द्वार) देह का दूसरा नाम शरीर है। शरीर ही हमारी समस्त चेष्टाओं का आश्रय है। यह है तब तक संसार में परिभ्रमण है। जैन दर्शन के अनुसार जिस कर्मोदय से आत्मा शरीर की रचना करता है वह शरीर नामकर्म है। उस शरीर नामकर्म के उदय से औदारिकादिवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध शरीर योग्य परिणामों से परिणत होते हुए जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं उस पुद्गलस्कन्ध की संज्ञा शरीर है।६ धवला टीकाकार अनन्तानन्त पुद्गलों के समवाय को शरीर कहते हैं- अणंताणं तप्पोग्गलसमवाओ सरीरं२२०
___ जैनदर्शन में पाँच प्रकार के शरीरों का वर्णन है, जिनमें से तैजस एवं कार्मण शरीर मुक्ति के पूर्व तक अनादिकाल से जीव के साथ हैं। औदारिक एवं वैक्रिय शरीरों की प्राप्ति एक-एक भव के लिए होती है। मृत्यु के समय ये शरीर एक बार छूटते ही हैं। शरीर के भेद- भिन्न-भिन्न औदारिक, वैक्रियादि शरीरनाम कर्म के उदय से भिन्न-भिन्न शरीर होते हैं, यथा- १. औदारिक २. वैक्रिय ३. आहारक ४. तैजस और ५. कार्मण शरीर। सांख्य दर्शन शरीर के दो भेद स्वीकारते हैं- सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर। बुद्धि, अहंकार, इन्द्रिय और तन्मात्राओं का आश्रयभूत 'अंगुष्ठमात्र पुरुष' सूक्ष्म शरीर नित्य है। स्थूल शरीर वह है जिसके