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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन के करणों, वर्तमान आदि तीन कालों तथा पंचपरमेष्ठि और आत्मा (स्वयं जीव) इन छह की साक्षी से विचार करने पर १८,२४,१२० (५६३ x १० x २ x ३ x ३ x ३ x ६= १८,२४,१२०) प्रकार से मिच्छामि दुक्कडं दिया जाता है। ईयापथ का प्रतिक्रमण किए बिना आत्म विशुद्धि नहीं होती इसलिए साधु गमनागमन के पश्चात् ईयापथ प्रतिक्रमण अवश्य करता है। इस कृति का काल विक्रम संवत् १७३०,१७३३ अथवा १७३४ रहा है। (4) आयम्बिल सज्झाय- गुजराती भाषा में ११ पद्यों में निर्मित इस आयम्बिल सज्झाय नामक कृति में आयम्बिल तप का स्वरूप, प्रकार एवं महत्त्व प्रतिपादित है। यह एक प्रकार का बाह्य तप है जिसमें विकार उत्पन्न करने वाले दूध, दही, घृत, तेल एवं मीठे का त्याग होता है। इस तप की महिमा कर्मक्षय एवं स्वादजय की दृष्टि से अंगीकार की गई है। इस आयम्बिल तप का उत्कृष्ट एवं जघन्य प्रकार इस आयम्बिल सज्झाय में निरूपित किया गया है। (5) मरुदेवी माता सज्झाय- सात कड़ियों में रचित यह गुजराती कृति प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की माता मरुदेवी के जीवन से सम्बद्ध है। यह विनीता नगरी में तीर्थंकर ऋषभदेव के दर्शन करने के लिए जाती है एवं उत्कृष्ट विचारों के आने से सर्वज्ञता को प्राप्त कर लेती है। इस कृति में विनयविजयगणी ने माता मरुदेवी के जीवन चरित्र को भलीभांति उत्कंटित किया है। (6) प्रत्याख्यान विचार- इसमें दो ढालों के अन्तर्गत कुल २६ पद्य हैं। अनागत आदि दस प्रत्याख्यानों का निरूपण करते हुए दस अद्धाप्रत्याख्यान के अन्तर्गत नवकारसी आदि प्रत्याख्यानों का निरूपण किया गया है। प्रत्येक प्रत्याख्यान के आगार भी दिए गए हैं। प्रसंगतः अशन-पान-खादिम एवं स्वादिम इन चार प्रकार के आहारों का स्वरूप समझाया गया है। द्वितीय ढाल में अनाहार का विवेचन किया गया है। यह प्रत्याख्यान विचार कृति 'प्रत्याख्यान सज्झाय' नाम से भी जानी जाती है। (1) षडावश्यक स्तवन- दिन के अन्त में एवं रात्रि के अन्त में साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका द्वारा अवश्यकरणीय क्रिया को आवश्यक कहते हैं। आवश्यक छह हैं १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वन्दना ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्याना विनयविजयगणी ने प्रत्येक आवश्यक का स्वरूप एवं उसके प्रभाव का निरूपण एक-एक ढाल में किया है। इस प्रकार इस कृति में छह ढाल हैं तथा उनमें क्रमशः ५,७,७,६,५ और ७ पद्य हैं। कृति का प्रारम्भ पांच कड़ियों से हुआ है तथा अन्त में १ कड़ी का कलश है। इस कृति में वन्दना के द्वादश आवर्त; ३२ दोषों का उल्लेख हुआ है।