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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अधर्मद्रव्य का धर्मद्रव्य से केवल इतना अन्तर है कि वह गति की जगह स्थिति का माध्यम है।
___ धर्म और अधर्म द्रव्यों के कारण ही लोक व्यवस्थित है। यदि ये नहीं हों तो जीव एवं पुद्गल द्रव्यों की सुसंगत व्यवस्था नहीं हो सकती और सम्पूर्ण लोक में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी। इन दोनों द्रव्यों के कारण जीव एवं पुद्गल लोकाकाश की सीमा के बाहर नहीं जाते और लोकाकाश एवं अलोकाकाश का भेद बना रहता है। यद्यपि धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यप्रदेशी हैं तथापि ये अखण्ड द्रव्य हैं क्योंकि इनका विखण्डन सम्भव नहीं है। इन दोनों द्रव्यों में देश, प्रदेश आदि की मान्यता मात्र वैचारिक स्तर पर ही होती है, वास्तविक रूप में धर्म एवं अधर्म द्रव्य के खण्ड नहीं होते।
____ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण इन पाँच अपेक्षाओं से भी षड्द्रव्यों का निरूपण किया गया हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य दोनों द्रव्य (संख्या) से एक-एक है, क्षेत्र से लोकाकाश तक हैं, काल से शाश्वत हैं और भाव से वर्ण, रस, गन्ध एवं स्पर्श से रहित हैं। धर्मद्रव्य गुण से गति में सहायक है। पुद्गल तथा आत्माओं के संचरण में यह सहायता करता है। लोकप्रकाशकार आगम के आधार पर धर्मद्रव्य का वैशिष्ट्य कहते हैं कि यह सर्व जीव के गमन-आगमन में हेतु रूप होने के साथ-साथ भाषा, मन, वचन एवं काया के योग आदि चेष्टाओं में भी निमित्त बनता है
जीवानामेष चेष्टासु गमनागमनादिषु।
भाषामनःवचस्काययोगादिष्वेति हेतुताम् ।। __ जहाँ धर्मद्रव्य गति में सहायक है वहीं अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गल दोनों की स्थिति में सहायक है। बैठने में, खड़े होने में, सोने में, आलम्बन में तथा चित्त की स्थिरता में भी अधर्म द्रव्य ही हेतुभूत है।" यदि धर्मद्रव्य न हो तो जीव और पुद्गल स्थिर होने पर सदा ही स्थिर रहेंगे और यदि अधर्मद्रव्य नहीं हो तब सभी जीव एवं पुद्गल गति ही करते रहेंगे। (3) आकाशद्रव्य- आकाश एक ऐसा द्रव्य है जो लोक और अलोक दोनों में व्याप्त है। जहाँ द्रव्यपरत्व से आकाशद्रव्य एक है। वहीं क्षेत्रपरत्व की दृष्टि से लोकालोक की अपेक्षा अनन्त प्रदेशी है
और लोकाकाश की अपेक्षा से असंख्यात प्रदेश प्रमाण है। काल से यह द्रव्य शाश्वत है और भाव से वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श से मुक्त है। गुण की अपेक्षा से यह द्रव्य सभी पदार्थों के लिए अवकाश अर्थात् स्थान (जगह) देता है। इस गुण के कारण ही संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणु एक प्रदेश में भी समा सकते हैं। आकाशद्रव्य अनन्त प्रदेशी, एक और अखण्ड द्रव्य है।
धर्म, अधर्म और आकाश तीनों द्रव्यों के स्कन्ध, देश और प्रदेश तीन-तीन भेद होते हैं। इन तीनों द्रव्यों के स्कन्ध आदि की कल्पना केवल वैचारिक स्तर तक ही सम्भव है, वस्तुतः इन द्रव्यों का विभाजन कर पाना सम्भव नहीं है, इसलिए इन्हें अखण्ड द्रव्य कहा जाता है। सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय