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द्वितीय अध्याय
लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1)
समस्त जीव एवं अजीव लोक में रहते हैं। जैन दार्शनिक लोक के स्वरूप की चर्चा दो दृष्टियों से करते हैं। एक दृष्टि में यह लोक पंचास्तिकायात्मक है तथा दूसरी दृष्टि से इसे षड्द्रव्यात्मक कहा गया है। जब धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय की अपेक्षा से लोक के स्वरूप को व्याख्यायित किया जाता है तो इसे पंचास्तिकायात्मक कहा जाता है तथा जब काल द्रव्य को भी दृष्टिगत रखकर धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल एवं जीव इन षड्द्रव्यों के आधार पर लोक के स्वरूप का विवेचन किया जाता है तो लोक षड्द्रव्यात्मक कहा जाता है। इन षड्द्रव्यों में एक जीव एवं शेष पाँच अजीव होने से लोक जीवाजीवात्मक भी कहा गया है।
द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक
कुछ जैनाचार्य लोक के स्वरूप का निरूपण चार दृष्टियों से करते हैं, तदनुसार हरिभद्रसूरि ने लोकविंशिका के प्रथम खण्ड में लोक को द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक की अपेक्षा से चार प्रकार का कहा है । १७वीं शती में लोकप्रकाशकार उपाध्याय विनयविजय भी लोक का स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार अपेक्षाओं से प्रस्तुत करते हैं । द्रव्य दृष्टि से यह लोक षड्द्रव्यात्मक है। षड्द्रव्य में धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल और काल इनका परिगणन किया जाता है। ये जीव-अजीव स्वरूप एवं नित्यानित्यात्मक षड्द्रव्य ही द्रव्यलोक है।' क्षेत्र दृष्टि से यह लोक असंख्यात कोटि योजन विस्तार वाला है। अधः, ऊर्ध्व और तिरछा इस तरह विशिष्ट आकार वाला आकाश प्रदेश क्षेत्रलोक है।' काल की अपेक्षा से यह लोक भूतकाल में या भविष्य में रहेगा और वर्तमान में विद्यमान है तथा समय, आवलिका आदि रूप से इसका व्यवहार होता है । यही काललोक
है । '
भावतोऽनन्तपर्यवः। लोकशब्द प्ररूप्यास्ति कायस्थगुणपर्यवैः । । * अर्थात् षड्द्रव्यात्मक लोक के अनन्त पर्यायरूप भाव ही भावलोक है।
लोक के इन चार प्रकारों में से इस अध्याय में द्रव्यलोक की विषयवस्तु का विवेचन किया जा रहा है। क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक की चर्चा अन्य अध्यायों में यथावसर की गई है।