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लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) असंख्यात और कुछ अनन्तकायिक होते हैं। ६. पद्मिनीकन्द, उत्पलिनीकन्द, अन्तरकन्द एवं झिल्लिका नामक वनस्पति अनन्तकायिक होती है। ७. सफ्फाक, सज्जाय, उव्वेहलिया, कूहन और कन्दूका देशभेद से अनन्तजीवात्मक होती है। ८. सभी किसलय अनन्तकायिक होते हैं।
इस प्रकार सर्व जाति के कन्द, सूरणकन्द, वज्रकन्द, हरी हल्दी, हरी अदरक, हरा कच्चुरा, सतावरी, विरली कुआर, थोर, गलो, लहसुन, बांस, करेला, गाजर, लूणी, लोदर, गिरिकर्णी, किसलय पत्र, खीर सुआ, येग, हरा मोथ, लूणी वृक्ष की छाल, खीलाडा, अमर बेल, मूली, भूमिफोडा, विरुआ, टांका का प्रथम पत्र, सूकरवेल-लता, पलाक की भाजी, कोमल इमली, आलू, पिंडालू तथा हरवंती आदि और इन्हीं लक्षणों वाली वनस्पति बादरअनन्तकायिक वनस्पति होती है।
द्वीन्द्रिय के भेद स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों से युक्त जीव द्वीन्द्रिय कहा जाता है। इसके पर्याप्त और अपर्याप्त दो भेद होते हैं। मृत कलेवर में पैदा होने वाले कृमि, कीट आदि सभी द्वीन्द्रिय सम्मूर्छिम
और नपुंसक होते हैं। लोकप्रकाशकार ने द्वीन्द्रिय जीवों के प्रकारों का उल्लेख छठे सर्ग में इस प्रकार किया है- १. कुक्षि और गुदा द्वार में उत्पन्न होने वाले कृमि २. विष्ठा आदि अमेध्य पदार्थों में उत्पन्न होने वाले कीड़े ३. लकड़ी में उत्पन्न होने वाला घुण नामक कीड़ा ४. गंडोला केंचुआ ५. वंशीमुखा मातुवहा ६. जलोपुरा मेहरा ७. जातक ८. नाना प्रकार के शंख ६. शंखला १०. कौड़ी ११. सीप १२. चंदन १३. जौंका
प्रज्ञापना सूत्र में इनके अलावा भी अन्य भेद बताए हैं- १. गोलोम २. नूपुर ३. सौमंगलक ४.सूचीमुख ५. गौजलोका ६. जलोयुष्क ७. घुल्ला ८. खुल्ला ६. गुडज १०. स्कन्ध ११. सौक्तिक १२. मौक्तिक १३. कलुकावास १४. एकतोवृत १५. द्विधातोवृत्त १६. नन्दिकावर्त १७. शम्बूक १८. समुद्रलिक्षा।
श्रीन्द्रिय के भेद त्रीन्द्रिय जीव वे कहलाते हैं जो स्पर्शन, रसना और घ्राण इन तीन इन्द्रियों से युक्त हों। त्रीन्द्रिय जीवों के भी पर्याप्त और अपर्याप्त दो भेद होते हैं। १. अनेक जाति की चीटियाँ २. घृतेलि ३. औपदेहिक (उदई, दीमक) ४. लीख ५. मकोड़ा ६. जूं ७. गद्धइयां ८. खटमल ६. गोकलगाय १०. इयल ११. सावा १२. गुल्मी १३. गोबर का कीड़ा १४. चोर कीड़ा १५. अनाज का कीड़ा १६. पांचों रंग के कंथुआ १७. तृण-काष्ठ तथा फल का आहार करने वाले १८. पत्तों आदि का आहार करने वाले इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव होते हैं।