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लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) शरीर, इन्द्रिय आदि के व्यापारों में परिणमन करता है। जिस शक्ति से परिणमन कार्य निष्पन्न होता है वह पर्याप्ति है। यह शक्ति परिणमन का कार्य एक अन्तर्मुहूर्त में पूरा होता है।
जीव को पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से भी विभाजित किया जाता है। अतः जिस कर्म के उदय से आहारादि पर्याप्तियों की रचना होती है वह पर्याप्तनामकर्म एवं जिसके उदय से जीव अपर्याप्त होता है वह अपर्याप्त नामकर्म कहा जाता है। पर्याप्ति के प्रकार- नये जन्म ग्रहण के साथ जीव उत्पत्ति स्थान में पहुँचने लगता है। यह परिणमन शक्ति षड्विध प्रकार की होती है।६२ आहारवर्गणा के पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण कर खल
और रस रूप में परिणत करने वाली आहारपर्याप्ति, रस रूप में परिणत आहार को रुधिर, वसा, माँस, अस्थि, मज्जा और वीर्य धातुओं में परिणमन करने वाली शरीरपर्याप्ति होती हैं। सप्त धातुओं से रूपादि युक्त पदार्थ ग्रहण करने के निमित्तभूत पुद्गलों का उपचय करने वाली इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलों का श्वास और उच्छ्वास में रूपान्तरण करने वाली श्वासोच्छ्वास (आनापान) पर्याप्ति, भाषा वर्गणा के पुद्गलों का चतुर्विध भाषा में रूपान्तरण करने वाली भाषा पर्याप्ति तथा अनुभूत अर्थ के स्मरण रूप मनोवर्गणा के पुद्गलस्कन्धों का परिणमन मन के रूप में करने वाली मनःपर्याप्ति कहलाती है।६३ षट् पर्याप्तियों का प्रतिष्ठापन क्रम और काल- षट् पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है
और इनकी पूर्णता क्रमवत् होती है। जन्म के प्रथम समय से ही सभी पर्याप्तियाँ सत्ता में रहती हैं, अतः इनका प्रारम्भ युगपत् कहा जाता है। सभी पर्याप्तियों का विकास धीरे-धीरे समयानुसार जीव की इन्द्रियों के आधार पर होता है, अतः इनकी पूर्णता क्रमवत् कही गई है।
योनि में प्रवेश करते ही प्रथम समय से लेकर एक अन्तर्मुहूर्त में सभी पर्याप्तियाँ निष्पन्न होती हैं। आहार पर्याप्ति एक समय में पूर्ण हो जाती है। तदनन्तर शरीरादि पर्याप्तियाँ एक ही अन्तर्मुहूर्त में (१ समय कम ४८ मिनट में) निष्पन्न हो जाती हैं। सभी पर्याप्तियों का समाप्ति काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही कहा गया है
आरम्भसमयाद्यान्ति निष्टां ह्यन्तर्मुहूर्तिकः । तिथंच और मनुष्यों में ये षट् पर्याप्तियाँ एक समय कम मुहूर्त में पूर्ण हो जाती हैं और उपपात से जन्म लेने वाले देव और नारकियों में इन षट् पर्याप्तियों की पूर्णता एक समय में ही हो जाती है। उपपात से जन्म लेने के कारण देव और नारकियों का शारीरिक विकास क्रमवत् नहीं होता है, अतः उनकी पर्याप्तियाँ प्रथम समय में ही पूर्ण हो जाती है। पर्याप्ति के आधार पर जीव की अवस्थाएँ- लोकप्रकाशकार के द्वारा पर्याप्तियों के आधार