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लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1)
आसानी से रहते हैं।" लोक के अग्रभाग अर्थात् सिद्ध क्षेत्र में जाने वाले जीवों की ऊर्ध्वगति होती है
और इस गति को प्राप्त करने वाले जीव के प्राण सर्व अंगों में से निकलते हैं। सिद्ध क्षेत्र की ओर जाने वाले जीव मार्ग में आने वाले प्रदेशों को स्पर्श किए बिना अस्पृशद्गति से गमन करते हैं। एक समय में ऊर्ध्वलोक में से उत्कृष्ट चार और तिर्यक् लोक में से एक सौ आठ सिद्ध होते हैं। अधोलोक के लिए तीन भिन्न-भिन्न मत मिलते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार बीस, संग्रहणी के अनुसार बाईस तथा सिद्ध प्राभृत में चालीस की संख्या में जीव अधोलोक से सिद्धगति में जाते हैं।" उत्सर्पिणी काल के तीसरे और अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में उत्कृष्ट एक सौ आठ जीव सिद्ध होते हैं। उत्सर्पिणी के ही पाँचवें आरे में बीस जीव सिद्ध होते हैं। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के शेष सभी आरों में दस जीव सिद्ध होते हैं।
सिद्ध गति प्राप्त करने वाले जीवों में कुछ विशेषताएँ होती हैं, वे इस प्रकार हैं१. वज्रऋषभनाराच नामक प्रथम संहनन वाला जीव ही सिद्ध गति प्राप्त करता है। २. देवगति से सिद्धगति को जाने वाला जीव समचतुरन संस्थान वाला होता है और अन्य गति
से जाने वाला जीव छहों संस्थानों में से किसी भी संस्थान वाला हो सकता है। ३. उत्कृष्ट कोटि पूर्व आयुष्य वाला तथा जघन्य नौ वर्ष के आयुष्य वाला जीव सिद्ध होता है।
___ सिद्ध जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ १/३ धनुष प्रमाण होती है तथा जघन्य अवगाहना एक हाथ और आठ अंगुल प्रमाण होती है। सिद्ध की अवगाहना सम्बन्धी सामान्य कथन यह किया जाता है कि अन्तिम मनुष्य जन्म में जीव की जो अवगाहना होती है उसका दो तृतीयांश भाग सिद्ध जीव में होता है। (6) कालद्रव्य- कालद्रव्य द्रव्य से एक द्रव्य, क्षेत्र से लोकप्रमाण, काल से शाश्वत, भाव से वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श रहित और गुण से वर्तन गुण वाला है। असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में काल द्रव्य के कालाणु व्याप्त हैं, परन्तु बहुकायत्व न होने से काल-द्रव्य की अस्तिकाय के रूप में गणना नहीं होती है। कालद्रव्य की विशिष्ट चर्चा 'काललोक' नामक अध्याय में की गई है।
काल को जैनदर्शन में अनस्तिकायात्मक माना गया है, क्योंकि लोक में व्याप्त कालाणु परस्पर स्निग्ध एवं रुक्ष गुणों के अभाव में पृथक् ही बने रहते हैं। वे वर्तन गुण से युक्त होते हैं। जीव में उपयोग लक्षण तथा उपयोग का ज्ञान एवं दर्शन के रूप में निरूपण जैनदर्शन का वैशिष्ट्य है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि ज्ञान के भेदों, इसी प्रकार चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन आदि दर्शन भेदों के निरूपण भी जैनदर्शन में ही प्राप्त होते हैं।