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लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1)
द्रव्यलोक षड्द्रव्यमय लोक ही द्रव्यलोक है, अतः षड्द्रव्य का स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत है- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों की जहाँ अवस्थिति है, वह लोक है। आकाश को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य केवल लोक में हैं, किन्तु आकाश एक अखण्ड, अनन्त व असीम द्रव्य है तथा लोक के बाहर भी है। ससीम लोक के चारों ओर अनन्त अलोकाकाश है।
धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल ये पाँच बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय भी माने जाते हैं जबकि काल को अनस्तिकाय माना गया है। धर्म, अधर्म और आकाश का बहुप्रदेशत्व द्रव्यापेक्षा से नहीं, अपितु क्षेत्र की अपेक्षा से है। द्रव्यसंग्रह में कहा भी है
जावदियं आयासं अविभागी पुग्गलाणुवट्ठद्धं ।
तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं।। प्रो. जी. आर. जैन भी लिखते हैं- "Pradesha is the unit of space occupied by one indivisible atom of matter"" अर्थात् प्रदेश आकाश की वह सबसे छोटी इकाई है जो एक पुद्गलपरमाणु क्षेत्र घेरता है। क्षेत्र की अपेक्षा से ही धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी और आकाश अनन्तप्रदेशी कहा जाता है। पुद्गल का बहुप्रदेशत्व परमाणु की अपेक्षा से नहीं, अपितु स्कन्ध की अपेक्षा से है। लोक में जीव अनन्त हैं और असंख्यात प्रदेशी हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल ये पाँच द्रव्य अजीव हैं क्योंकि उनमें चैतन्य नहीं होता है तथा जीव द्रव्य मात्र
चैतन्य होता है। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और काल अरूपी है एवं पुद्गल द्रव्य रूपी है। षड्द्रव्य नित्य और लोकव्यापी है तथा आकाश अलोक में भी व्याप्त है। षड्द्रव्य विवेचन (1-2) धर्म और अधर्म द्रव्य-जीव, पुद्गल, आकाश एवं काल ये चार द्रव्य प्रायः सभी दार्शनिक सम्प्रदायों एवं विज्ञान को मान्य हैं, किन्तु धर्म व अधर्म द्रव्य की अवधारणा लेश्या, गुणस्थान, द्रव्यकर्म आदि की तरह जैनधर्म की अद्वितीय अवधारणा है। धर्म और अधर्म शब्द प्रचलित अर्थों स्वभाव, कर्त्तव्य, साधना अथवा उपासना से पूरी तरह भिन्न द्रव्य के वाचक एवं विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त हैं- 'धर्मादयः संज्ञा सामासिक्यः।"
धर्म और अधर्म द्रव्य नित्य द्रव्य होने से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त हैं। धर्म एवं अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की गति एवं स्थिति में सहायक एवं उदासीन होते हैं। जीव एवं पुद्गल की गति में धर्मद्रव्य अपरिवर्तित रहता है, क्योंकि यह इनकी गति में निष्क्रिय माध्यम है। यह स्वयं जीव या पुद्गल को गति के लिए प्रेरित नहीं करता, अपितु गति करने वालों की गति में सहायक मात्र है।