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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन
आचार्य तुलसी एवं उनकी परम्परा के अनेक सन्तों ने इसे अपनाया और सैंकड़ों साधु-साध्वियों ने इसे याद कर लिया। आचार्य तुलसी का मन्तव्य है कि शान्तसुधारस संगान में जितना मधुर है उतना ही भावपूर्ण है।" संगायक और श्रोता तन्मय होकर इसके बहाव में बह जाते हैं । शान्तसुधारस का एक संस्करण आचार्य तुलसी के मार्गदर्शन में आदर्श साहित्य संघ चुरु में हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ है।
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शान्तसुधारस में १६ भावनाओं का आध्यात्मिक दृष्टि से प्रभावी निरूपण हुआ है- १. अनित्यता २. अशरणता ३. संसार ४. एकत्व ५. अन्यत्व ६. अशुचि ७. आनव ८. संवर ६. निर्जरा १०. धर्म ११. लोक १२. बोधिदुर्लभ १३. मैत्री १४. प्रमोद १५. कारुण्य १६. माध्यस्थ्य। संसार की अनित्यता एवं असारता को रामगिरि राग में गेय निम्नांकित श्लोक कितनी प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करता है
मूढ ! मुह्यसि मुधा मूढ! मुह्यसि मुधा, विभवमनुचिन्त्य हृदि सपरिवारम् । कुशशिरसि नीरमिव गलदऽनिलकम्पितं, विनय ! जानीहि जीवितमसारम् । ।" हे मूढ़ तु व्यर्थ ही वैभव एवं परिवार का चिन्तन कर मोह में उलझ रहा है । हे विनय ! तू इस जीवन को उसी प्रकार असार समझ जिस प्रकार कुश के अग्र भाग पर टिका हुआ जलबिन्दु वायु द्वारा प्रकम्पित होने पर समाप्त हो जाता है।
संसार की असारता एवं भयानकता को केदार राग में अभिव्यक्त करते हुए कहा गया हैकलय संसारमतिदारुणं, जन्ममरणादि भयभीत रे ।
मोहरिपुणेह सगलग्रह, प्रतिपदं विपदमुपनीत रे।।"
हे पुरुष ! इस संसार में जन्म-मरण आदि के भय से भीत बना हुआ है। मोह रूपी शत्रु तेरा गला पकड़कर तुझे पग-पग पर विपदा की ओर धकेल रहा है । अतः तु अनुभव कर कि यह संसार अत्यन्त दारुण (भयानक) है।
मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ भावना का स्वरूप एक ही श्लोक में उन्होंने इस प्रकार स्पष्ट किया है
मैत्री परेषां हितचिन्तनं यद् भवेत् प्रमोदो गुणपक्षपातः । कारुण्यमार्ताऽङ्गिरुजां जिहीषत्युपेक्षणं दुष्टधियामुपेक्षा । । *
दूसरों का हित चिन्तन मैत्री भावना है। गुणों के प्रति अनुराग होना प्रमोद भाव है। दुःखी प्राणियों के कष्ट निवारण की इच्छा भावना कारुण्य भावना है तथा दुष्ट बुद्धि वाले लोगों के प्रति उदासीन रहना माध्यस्थ भावना है।
संवर भावना को नटराग से गाते हुए इस प्रकार भावाभिव्यक्ति की गई है -