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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन
द्वारा किए गए जल्प प्रयोगों को समझना वे आवश्यक मानते हैं। मुनि विमलविजय के शिष्य भावविजय गणी ने विक्रम संवत् १६७६ में ' षट्त्रिंशज्जल्पसंग्रह' नामक कृति की रचना की थी। उसी का विनयविजय ने संस्कृत गद्य में संक्षेप किया है। इसलिए विनयविजय की इस कृति को ‘षट्त्रिंशज्जल्पसंग्रह संक्षेप' के नाम से जाना जाता है। यह कृति सम्भवतः अभी तक अप्रकाशित है। मिथ्यात्व रूप समुद्र को तैरने के लिए जिनप्रवचन रूप वाहन का आश्रय विनयविजय जी आवश्यक मानते हैं इसमें धर्मसागरगणि के ग्रन्थों में निरूपित शास्त्र विरुद्ध ३६ जल्पों का उत्तर- प्रत्युत्तर दिया गया है।
लोकप्रकाश
जैन धर्म-दर्शन के द्रव्यानुयोग एवं गणितानुोग की समग्र एवं व्यवस्थित प्रस्तुति की दृष्टि से लोकप्रकाश महत्त्वपूर्ण कृति है। जिसे उपाध्याय विनयविजय ने ३७ सर्गों एवं २०००० श्लोकों में निबद्ध किया है। चरणानुयोग की विषयवस्तु भी कुछ अंशों में भावलोक के अन्तर्गत समाविष्ट हुई है। कहीं कहीं तीर्थंकरों के वर्णन आदि में धर्मकथानुयोग का भी समावेश हुआ है। इस प्रकार द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणानुयोग और धर्मकथानुयोग इन चारों की विषयवस्तु लोकप्रकाश ग्रन्थ में उपलब्ध है। फिर भी अधिक विवेचन की दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो इसमें द्रव्यानुयोग एवं गणितानुयोग का अधिक विवेचन हुआ है।
'लोकप्रकाश' नाम से यह प्रतीत होता है कि इसमें मात्र लोक के स्वरूप का विवेचन हुआ होगा। किन्तु उपाध्याय विनयविजय ने लोक के चार प्रकार निरूपित करते हुए जैन धर्म दर्शन की व्यापक विषय वस्तु को इसमें समाहित कर लिया है। वे लोक के चार प्रकार निरूपित करते हैं- १. द्रव्यलोक २. क्षेत्रलोक ३. काललोक ४. भावलोक। द्रव्यलोक में षड्-द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव का विवेचन हुआ है। उनमें भी जीव द्रव्य का विशेष विस्तार से सर्वविध विवेचन किया गया है। क्षेत्रलोक में लोक के बाह्य स्वरूप का विवेचन है जिसके अन्तर्गत अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक को १४ रज्जु लोक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। काललोक के अन्तर्गत कालद्रव्य का तार्किक स्थापन एवं विवेचन हुआ है। भावलोक में जीव के क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक और सान्निपातिक भावों का प्रतिपादन हुआ है। इस प्रकार लोकप्रकाश एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें जैन धर्म-दर्शन का अधिकांश विवेच्य विषय समुपलब्ध है।
लोकप्रकाश के लेखन की प्रेरणा उपाध्याय विनयविजय को कहाँ से प्राप्त हुई यह तो स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है किन्तु हरिभद्रसूरि द्वारा रचित लोक तत्त्व निर्णय, लोकविंशिका आदि ग्रन्थ सम्भव है इसमें प्रेरणास्रोत रहे हों। लेखक का आगमिक ज्ञान इस कृति के प्रणयन में विशेष आधार